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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३१० जैन तत्त्व मीमांसा की मन ( पर्याय ) क्रमबद्ध होना मानलिया जाय तो परिणामोंकी सम्हाल करने की जरूरत नहीं होगी क्योंकि वह सम्हाल करने पर भी उदय में तो क्रमबद्ध ही आयेंगे श्रतः सम्हाल करना व्यर्थ ही समझा जायगा इमलिये भावगत क्रमनियमित पर्याय मानना मिथ्यावाद की पुष्टि करना है। निमित्तकारण की स्वीकृति के कथन में आपने कार्यात्पत्ति में निमित्तकारण को स्वीकार तो किया है जो आपकी मान्यताके विरुद्ध है। इसी लिये आपने केवल मान्यता की सुरक्षा करनेके लिये " प्रत्येक कार्य में निमित्त अवश्य होता है" इन शब्दों में निमित्तकी स्वीकृति स्वीकार की है । अर्थात् कार्योत्पति जो होतो है वह तो उपादान को योग्यता से ही होती है निमित्तकारण उस कार्योत्पतिके समय उपस्थित हो जाते हैं। पंडितजीकी मान्यता है कि "कार्योत्पत्ति के समय निमित्त उपादान को न कुछ सहायता ही देता है अथवा न कुछ उनको प्रेरणा ही करता है और न कुछ उपादान में वलही उत्पन्न करना है । वह तो केवल उदासोनरूपसे उपस्थित रहता है क्योंकि कार्योत्पतिके ममय प्राचार्योंने उसकी उपस्थिति व्यवहार दृष्टि से स्वीकार की है इसलिये निमित्त की स्वीकृति स्वीकार करनी पड़तो है । वास्तवमें निमित्त अकिंचित कर हो है । कार्यकी निष्पत्ति उपादान की योग्यता से ही होता है यह वास्तविक सिद्धान्त है । " किन्तु आचार्योंने इस मान्यताके विरुद्ध केवल उपादानकी योग्यता से विना निमितके कार्यकी निष्पत्ति नहीं होती ऐसा घोषित किया है। "भविया सिद्धिं जेसि ते हवंति भवसिद्धा । तब्बिीरियाऽभव्वा संसारादो ण सिझंति" ५५७ --भव्यमार्गणाधिकार For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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