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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org "" २४६ जैन तत्त्वमीमांसा की का स्वकाल उपस्थित है ऐसे असत् ( अविद्यमान ) पर्यायसमूहको उत्पन्न करता है Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अब कहिये पंडितजी ! आपका कौनसा कथन सत्य माने ? त्र्यमें त्रिकालपर्यायविद्यमानवाला या अविद्यमान असत् पर्याय उत्पन्न होनेवाला ? यदि पहिले वाला सत्य मानते हैं तो यह पीछेवाला कथन ( असतृपर्याय के उत्पन्नवाला ) मिथ्या सिद्ध होता है । यदि यह पीछेवाला कथन सत्य कहा जाय तो इसके पहिलेवाला कथन मिथ्या सिद्ध होता है और इसके साथ साथ नियमित पर्याय वाला कथन भी मिथ्या सिद्ध होजाता है क्यों किं सत् ( अविद्यमान ) पर्याय की उत्पत्ति में स्वकालका कोई नियम लागू नहीं पडता इसका कारण यह है कि जब वह पर्याय ही विद्यमान नहीं है तो उसका स्वकाल कैसा ? स्वकाल तो उसका माना जासकता है जो वस्तु ट्राकम हो, पहले से विद्यमान हो और उसके प्रगट होनेका काल निश्चित किया गया हो तो वह नियमितकालमें हो प्रगट होगी और जो असत् पर्याय उत्पन्न होगी उसके उत्पन्न होने में जैसा निमित्तों का साधन मिलेगा वह तप अर्थात् बुरे निमित्त मिलेंगे तो जीवको नर्कादि बुरी पर्याय उत्पन्न होगी अथवा अच्छा निमित्त मिलेगा तो देवादिककी अच्छी पर्याय धारण होगी। इसमें क्रमवद्धताका कोई नियम नहीं है। तो भी जिसप्रकार धतूरा खानेवालोंको सब और पीला ही पीला दिखाई देता है उसी प्रकार पंडितजी ! आपको भी सव ओर क्रमबद्धपर्याय हीं दिखाई पड़ती है । इसीलिये जो प्रमाण स्वपक्षका घातक है उसीप्रमाणको आप स्वपक्ष मडन में देरहे हैं । मोक्षपाहुड़ और स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षाके आपने जो प्रमाण दिये हैं उनसे भी नियमितपर्यायकी सिद्धि नहीं होती प्रत्युत असिद्धि अवश्य होता है । For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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