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समीक्षा
"अइसोहण जोएणं शुद्ध हेमं हवेइ जहतहम् । कालाइलद्धीए अप्पा परमप्पओ हवदी " २४ मो नपाहुड " कालाइल द्विजुत्ता णाणासत्तीहि संजुदा अत्था । परिणममाणेहि सयं ण सक्कदे कोवि वारेदु" - १६ स्वामिका
इन दोनों गाथाओंसे न तो प्रत्येक कार्य म्वकाल में ही होते है आगे पीछे नहीं, यह सिद्ध होता और न निमित्तके विना केवल उपादानकी योग्यता से ही कार्योत्पत्ति होजाती है इसीवातकी सिद्धि होती है । प्रत्युत इससे तो यही सिद्धि होती है कि जिसप्रकार अनंधपाषाणादि गुरु उपदिष्ट अग्नि आदिक सुयोगसाधन द्वारा शुद्ध सुवर्ण हो जाता है उसीप्रकार कालादिलब्धीके संयोग प्राप्त होने पर यह छात्मा परमात्मा बन जाता है। __ इससे यह सिद्ध हुआ कि सुवर्णपाषाणको जिससमय विधिपूर्वक सोधा जायगा बह उसीममय सुवर्ण होजायगा। वह स्वकाल की अपेक्षा नहीं रखता । उसीप्रकार संसारी जीवोंको जिससमय काललाब्ध आदिका सुयोग निमित्त प्राप्त होता है वह उसीमामय मिद टोजाना है अतः इसमें स्वकालका पचडा लगानेको कोई गावश्यक्ता नहीं,क्योंकि काल लब्धि तो जिसकालमें जो कार्य बने सो काललब्धि, इसलिये काललब्धिका कोई नियत समय नहीं है । तथा होनहार भी जिससमय जो कार्य बन जाय उससमय उसका वह होनहार, अतः इनदोनों का कोई नियतकाल नहीं है । इनको तो बनाया जाता है । इसविषयमें स्व० ५० टोडरमल जी का यह कहना है कि
"काललब्धि वा होनहार तो किछु वस्तु ही नाही जिसकालविषे कार्य वने सो ही काललब्धि और जो कार्य भया सो ही होनहार" मो०प्र०पृ०४६२
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