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१७० जैन तत्त्व मीमांसा की "एकापि समर्थेयं जिनभक्ति गति निवारयितु । पुण्यानि पूरयितु दातुं मुक्तिश्रियं कृतिनः"
(क्षत्रचूडामणी) एवमर्थं ज्ञात्वा ये जिन पूजन स्नपन स्तवन नव जीर्ण चैत्य चैत्यालयोद्धारण यात्रा प्रतिष्ठादिक महापुण्यं कर्म कर्मविध्वंसक तीर्थकर नामकर्म दायकं विशिष्ट निदानरहितं प्रभावनाङ्ग गृहस्था मंतोऽपि निषेधंति ते पापात्मानो मिथ्यादृष्टयो नरकादि दुःख चिरकालमनुभवन्ति, अनन्तसंसारिगो भवन्तीति भावार्थः ।
इस कथनसे स्पष्ट हो जाता है कि व्यवहारका गोप नहीं किया जासकता जो व्यवहारका लोप कर परमार्थकी सिद्धि चाहता है। बह मिथ्यादृष्टि है अनन्त समारी है। ___ आचार्यांने व्यलिङ्गको भावलिगका कारण बतलाया है द्रव्यलिंग व्यवहार स्वरूप है उसके विना भावलिंग होता नहीं यह जैनागमका अटल सिद्धांत है इसलिये व्यवहारके बिना निश्चय होता नहीं।
"द्रव्यलिग समास्थाय भावलिंगी भवेद्यतिः। विना तेन न बन्धः स्यान्नानावतधरोऽपि सन। द्रव्यलिंगमिदं ज्ञयं भावलिंगस्य कारणं । तदध्यात्मकृतस्पष्टं नेत्राविषयं यतः ।। इसी प्रकार कुन्दकुन्द स्वामीका भी यही कहना है।
देखो भावप्राभत गाथा । पयडहि जिनवरलिंगं अभितर भावदोसपरिसुद्धो।
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