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समोक्षा
स्वरूप लक्षण उसमें नहीं आता है, तथापि वह विना अवलम्बनके निर्विषय नहीं कहा जाता । इसलिये ज्ञान अपने स्वरूपसे स्वयं सिद्ध है अतः वह अनन्य शरण उसका वही अवलम्बन है तो भी हेतु वश वह ज्ञान् अन्य शरणके समान उपचारित होत है । ऐसा क्यों होता है इसका हेतु यह है कि स्वरूप सिद्धिके विना परसे सिद्धि असिद्ध है। अर्थात् ज्ञान स्वरूपसे सिद्ध है तभी वह परसे भी सिद्ध माना जाता है। ज्ञान स्वरूपसे सिद्ध है यह बात प्रमाणसे सिद्ध है। "अर्थ वकल्पो ज्ञानं प्रमाण अर्थात् स्वपर पदार्थका बोध होना ही प्रमाण है ऐसा कहा गया
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। इस कथन से ज्ञानमें प्रमाणता परसे लाई गई है | परन्तु परसे प्रमाणता ज्ञानमें तभी या सकती है जब कि वह अपने स्वरूप से सिद्ध है क्योंकि वह जीव द्रव्यका विशेष गुण है। इस कथनसे यह स्पष्ट हो गया कि ज्ञानकी परसे सिद्धि करना यह उपचरित है ५४०२४२१४ - २४३१४४) पंचाध्यायी के श्लोकों का संक्षेप में भावार्थ है । इसका फल क्या है सो दिखाते हैंअर्थी ज्ञेयं ज्ञायक शङ्करदोप भ्रम क्षयो यदि वा । अविनाभावात्साध्यं सामान्यं साधको विशेषः स्यात् । ५४५
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अर्थात् - उपचरित सद्भूत व्यवहार नयका यह फल है कि ज्ञेय और ज्ञायक में शंकर दोष उत्पन्न न हो और किसी प्रकार का भ्रम भी इनमें उत्पन्न न हो पहिले ज्ञेयओर ज्ञायकमें शंकर दोष अथवा दोनोंमें भ्रम हुआ हो तो इस नयके जानने से वह दोष तथा भ्रम दूर हो जाता है। यहां पर अविनाभाव होनेसे सामान्य साध्य है विशेष उसका साधक है । अर्थात् ज्ञान साध्य है और वट ज्ञान पट ज्ञानादि उसका साधक है । इन दोनोंका ही अविनाभ व है । कारण कि पदार्थ प्रमेय है इसलिये वह किसी न किसीके ज्ञानका विषय होता ही है । और ज्ञान भी ज्ञेयका