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जैन तत्त्व मीमांसा क. नीतमिति यावत् । तद्विपरीतमनर्पितम्, प्रयोजनाभावात् । सतोऽप्यविवक्षाभवतीत्युपमर्जनीभूतमनर्षितमित्युच्यते । तथा द्रव्यमपि. मामान्यापणया नित्यं विशेषार्पणया:नित्यमिति नास्ति विरोधः । तौ च सामान्यविशेषी कथ ञ्चित भेदाभेदाभ्यां व्यवहारहेतू भवतः ।
हिन्दी टोका-अर्पित कहिये जो. मुख्य करिये सो तथा अनर्पित कहिये जो गौण करिये सो। इन दोऊ नय करि अनेक धर्म रूप वस्तु का कहना सिद्ध होय है तहां अनेक धर्म रूप ॐ जो वस्तु नाकू प्रयोजन वशतें जिम कोई एक धर्म की विवक्षा करि पाया है प्रधानपणा जाने सो अर्पित कहिये। ताकू उपनीत अभ्युपगत ऐसा भी कहिये । भावार्थ-जिस धर्म कूवक्ता प्रयोजनके वशते प्रधान करि कहै मो अर्पित है । याके विपरीत जाकी विवक्षा न करें मो अर्पित है । जातें जाका प्रयोजन नाही । वहरि ऐमा नाही जो वस्तु में धर्म नाही ताको गौण करि विवक्षाते कहे हैं । जाते विवक्षा तथा अविव ज्ञा दोऊ ही सत की होय है। तातै मन रूप होय नाकू प्रयोजनके वशते अविवक्षा करिये सो गौण है । ताते दोर. में वस्तुको सिद्धि है। यामें विरोध नाही। इहो उदाहरण-जैसे पुरुषके पिता, पुत्र, भ्राता भागजा इत्यादि संबन्ध है ते जनकपणा आदिकी अपेक्षाते विरोधरूप नाही । ताते अर्पणका भेदते पुत्रको अपेक्षा तो पिता कहिये ! वहरि तिमही पुरुषको पिताको अपेक्षा पुत्र कहिये । भाईकी अपेक्षा भाई कहिये मामाकी अपेक्षा भाणजा कहिये इत्यादि । तैसेही वस्तुकी सामान्य अर्पणाते नित्य कहिये विशेष अर्पणाते अनित्य कहिये । यामें विरोध नाही बहुरि मामान्य विशेष है ते कथश्चित् भेद अभेदकरि व्यवहारके कारण होय हैं । इहां सत्स त् एकानेक नित्या
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