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१४८ जैन तत्त्व मीमांसा की है लक्षण जिनिका एसे तीर्थ जो व्यवहारधर्म नाकी प्रवृत्तिके अर्थि अमृतार्थनय जो व्यवहारनय ताकर कहे हुए हैं । तिनिविषे एक पणा प्रगट करनहारा जो भूतार्थनय ताकरि एकपणाकू प्राप्तकरि शद्धपणाकरि स्थाप्या जो आत्मा तांकी आत्मख्याति है लक्षण जाका ऐसी अनुभूतिका प्राप्तपणा है । शुद्धनयकरि नव तत्वकू जाणे आत्माकी अनुभूति होय है । इस हेतुते नियम है । नहां विकार्य जो बिकारी होनेयोग्य अर विकार करनेवाला विकारक ए दोऊ तो पुण्य हैं । ऐसे ही विकार्य विकारक दोऊ पाप हैं तथा आश्रव्य कहिये आस्रव होनेयोग्य अर आस्रवक कहिये आस्रव करनेवाला ए दोऊ आस्रव हैं। तथा संवाय कहिये संवररूप होने योग्य अर संवारक कहिये मंवर करनेवाला ए दोऊ संवर है । तथा निर्जरने योग्य अर निर्जरा करनेवाला ए दोऊ निर्जरा हैं। तथा बन्ध करनेयोग्य अर बन्ध करनेवाला ए दोऊ बन्ध हैं। तथा मोक्ष होने योग्य अर मोक्ष करनेवाला ए दोङ मोक्ष हैं जाने एकहींके आपहीते पुण्य पाप आस्रव संवर निर्जरा वन्ध मोक्षकी उत्पत्ति वने नाहीं । अतः ए दोऊ जीव अर अजीव हैं ऐसे ए नद तत्त्व हैं . इनिकू वाह्य दृष्टिकरि देखिये तव जीवपुद्गलकी अनादि वन्धपर्याय प्राप्तकरि एक पणाकरि अनुभवन करते संते तो ए नवही भृतार्थ हैं
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