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समीक्षा
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कुछ नहीं अर्थात ज्ञान कभी दर्शन नहीं होता अथवा दर्शन कभी ज्ञान नहीं होता इसलिये इसके साथ प्रेरकनिमित्त का मम्बन्ध लागू नहीं होता। किन्तु जो गुणोंका परिणमन है उसके साथ प्रेरकनिमित्तका सम्बन्ध अवश्य है जैसा कि शंकामें श्रामादिके रसके परिणमन में बताया गया है। जो श्रामके रसकी अभी खट्टी पर्याय है और वह पक कर पंद्रह दिन बाद मीठी होगी तो उम्पको प्रेरक निमित्त चार दिन में मीठी पर्याय बना सकता है तथा प्राटेके रस गुण की वर्तमान में मीठी पर्याय है वह चार दिन बाद खट्टा हानबाली थी उसको प्रेरक निमित्त चार माह तक खट्टी पर्याय नहीं होने देता यदि ऐसा नहीं माना जायगा तो अविपाक निर्जगका स्वरूप ही नहीं बनेगा और किसी जीवको सविपाक निर्जरा द्वारा मोक्ष नहीं होगा सब शास्त्र भूठे होजायगे। पंडित जो ! आप द्रव्य में जिसप्रकार गुण मदा विद्यमान रहते हैं उसी प्रकार द्रव्य में पर्याय भी सदा विद्यमान मानते हैं और उसका क्रमबद्ध स्वकाल में उदय आना मानते हैं यह आपकी आगमाविरुद्ध मान्यता है , इसीलिये श्राप कहते हैं कि-"प्रत्येक द्रव्यकी ऊर्जप्रचयरूपसे अवस्थित पर्यायों में भी परिवर्तन होना सम्भव नहीं है । प्रत्येक द्रव्यकी द्रव्य पर्यायें और गुणपर्याय तुल्य हैं उनमें से जिसपर्याय का जो स्वकाल है उसके प्राप्त होनेपर ही वह पर्याय होती है" पृष्ठ ६४ जैन मी० पंडितजी ! जव स्वभाः से आम १५ दिन बाद पकनेवाला था वह प्रेरणाद्वारा चार दिन में पका दिया अथवा जो आटा चार दिन में नष्ट होनेवाला था उसे प्रेरणापूर्वक चार मास तक सुरक्षित रक्खा तब उसका स्वकाल कहां गया ? स्वकाल तो तव माना जाता जव कि वह प्रेरणाद्वारा आगे पीछे न होकर ठीक समय पर पकता या नष्ट होता सो तो होता नहीं, निमित्तानुसार
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