________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१२६
जैन तत्त्व मीमांसा की
शुद्ध होता है यह कथन उपचरित होनेसे, अपरमार्थ भूत है। क्यों कि जब ये दोनों द्रव्य स्वतंत्र है। और एक द्रव्यके गुण धर्म का दूसरे द्रव्य में संक्रमण होता नहीं तव एक द्रव्य में दूसरे द्रव्य का कारण रूप गुण और दूसरे द्रव्य में उसका कर्म रूप गुण कसे रह सकता है अर्थात् नही रह सकता है यह कथन थोडा सूक्ष्म तो है परन्तु बस्तुस्थिति यही है " पृष्ठ १८-१६ जैन तत्त्व मीमांसा
जीवकी संसार अवस्था तथा मुक्त अवस्था यह जीव की हा पर्याय है । तथा जीव शुभरूप अशुभरूप परिणमन भी स्वयं ही कर्ता है तथा शुद्ध रूप परिणमन भी स्वयं ही कर्ता है यह वात ठीक है । परन्तु पंडितजो यह तो बनाने की कृपा करें कि शुभ रूप अवस्था और अशुभ रूप अवस्था जीवकी पर संयोग विना ही होती है या पर संयोगके निमित्तसे होती है । यदि पर संयोगके निमित्त से होती है तो श्रापका यह कहना सर्वथा मिथ्या है कि " कोके कारण जाव शुभाशुभ होता है
और कर्मों के अभाव में शुद्ध होता है यह कथन उपचरित है अर्थात् भूठा है अपरमार्थ भून है ,. यदि कांके निमित्तस जोवकी शुभाशुभ रूप अवस्था नहीं होती तो सिद्ध भगवानकी शुभाशुभ रूप अवस्था क्यों नहीं होती ? विना पर निमित्त के जाय व्वय शुभाशुभ परिणमन करता तो सिद्धोंकी आत्माको भो स्वयं शुभ या अशुभ रूप परिणमन करना चाहिये । किन्तु उनके कर्मोका सम्बन्ध छूट गया इसलिये उनका परिणमन सदा शुद्ध होता है पदार्थोमें जो अशुद्धता आती है वह पर मंयोग से ही आती है पर मंयोगके बिना पदार्थो में अशुद्धता नहीं आती यह जैनागमका अटल मिद्धान्त है इसको कोई मंट नहीं सकता है .
आपका जो यह भ्रमोत्पादक कथन है कि"जब ये दोनों द्रव्य स्वतंत्र हैं । और एक द्रव्यके गुण धर्मका
For Private And Personal Use Only