________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१४२.
ਡੋਰ
तत्त्वमीमांसा की
योग्य वस्तु तिसका अनुकूलपणा करि तिस ध्यान भावकू' निमित्त मात्र होते संते तिस साधक विनाही अन्य सर्पादिकको विषको व्याधि ते स्वयमेव मिटिजाय है। तथा स्त्री जन है ते विडंबना रूप होजाय है बन्धनते खुल जाय है इत्यादिक कार्य मंत्रके ध्यान की सामर्थ ते होजाय है । तैसेही यह आत्मा अज्ञानते मिथ्या दर्शनादि भावकरि परिणमता संता मिथ्यादर्शनादिका कर्ता होय है। तव तिस मिथ्यादर्शनाविभावक अपने करनेके अनु कूलपणे करि निमित्त मात्र होते संते आत्मा जो तिस विनाही पुद्गल द्रव्य आपही मोहनीयादि कर्मभावकरि परिणमे है ।
:
भावार्थ- आत्मा ते अज्ञानरूप परिणामें हैं काहंसो ममत्व करें कासों राग कर हैं का द्वेष करें है । तिनि भावनिका आप कर्ता होय है। अतः तिसकु निमित्तमात्र होते पुद्गल द्रव्य आप अपने भावकरि कर्मरूप होय परिणमें हैं। इनका परस्परि निमित्तनैमित्तकभाव है । कर्ता दोऊ अपने अपने भावोंका है। इस कथनसे यह सिद्ध हुआ कि एकके परिणामोंका दूसरे के परिमन पर असर पडता है यदि ऐसी बात नहीं है तो मंत्र आराकके द्वारा सर्पादिकका विष दूर होना, भूतादिककी बाधा दूरहोना, देवादिकको वशमें करना, तारण, मारण, उच्चाटन, वशीकरण आदि कार्य होते देखे जाते हैं उसका निषेध किस आधारसे किया जायगा ? इसलिये मानना पडेगा कि एकके परिणामोंका असर दूसरे के परिणामों पर पडता है। इसी कारण द्रव्यकर्म के उदयमें जीवके रागद्वेषपरिणाम होजाते हैं और जीवके रागद्वेषपरिणामों के निमित्तसे पुद्गल परमाणु कर्मरूप परिणमन कर जाते हैं। यह प्रमाणसिद्ध वात है अतः इसका आप आगमके ज्ञाता होकर भी निषेध करते हैं यह वडे आश्चर्य की बात है ।
अज्ञानी जी भी अपना अज्ञानभावरूप शुभाशुभ भावनि
For Private And Personal Use Only