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१८२ जैन रत्व मीमां की आकाशद्रव्य और कालद्रव्यमें स्वभावपरिणमन भी सर्वश्रा क्रम नियमित हो होता है ऐसा मानना अनुचित है।
. इस प्रकार सिद्धों में भी स्वाभाविक परिणमन क्रमवद्ध अक्रमवद्ध रूपसे ही होता है। उनमें भी क्रमवद्धका नियम नहीं है। और कालद्रव्यका निमित्त सवमें है ही । संसारी जीव द्रव्या और पुद्गल द्रव्यका परिणमन स्वभाव होनेपर भी इनमें वैभाबकी शक्ति के कारण विभावरूप ही इन का परिणमन होता रहता है इस कारण इनको जैसा निमित्त कारण मिलजाता है । वैसा वह परिणमन कर जाता है इसमें क्रमबद्धका सवाल ही उत्पन्न नही होता । क्योंकि ये दोनू द्रव्य स्वतंत्र होनेपर भी वैभावकी शक्ति के कारण ये परतंत्र भी हैं। बद्ध अवस्थाम स्वतंत्र नहीं हैं परतंत्र ही हैं उनको स्वतंत्र शक्तिकी अपेक्षासे कह सकते हैं किन्तु व्यक्तिकी अपेक्षा तो परतंत्र ही हैं । जो परतंत्र है वह क्रमबद्ध अपने स्वभावरूपमें परिणमन नही कर सकता। जैसे जेली जेल में रहनेवाला मनुष्य परतंत्र है वह अपने इच्छा. नुसार कोई भी कार्य नहीं कर सकता है उनको तो जैलर की आज्ञानुसार ही कार्य करना पड़ता है इसी प्रकार संसारी जीव चारगति रूपी जेल में पड़ा हुआ है। उसको तो कर्मरूपी जेलर के उदयानुसार ही कार्य करना (परिणमन करना) पडेगा । वह स्वतंत्र कुछ भी नहीं कर सकता । इसीलिये प्राचार्योन उस जेल के तोड़नेका उपाय बतलाया है । यदि उन उपायोंसे संसार रूपी जेल तोडकर यह जीव निकलना चाहे तो निकल सकता है। ___ यदि वह संसार रूपी जेलमे पडा हुआ जीव उन उपायोंको काममें नहा लाकर क्रमनियमित पर्यायक विश्वासमें बैठा रहे तो क्या वह संसार रूपी जैलसे पार हो सकता है ? कभी नहीं । यदि ऐसा नहीं माना जायगा तो सब शास्त्र और जिनेन्द्रके वचन
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