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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा १८१ ही होती है । निमित्त स्वयं व्यवहार है इसलिये उसके द्वारा वह आगे पीछे की जा सके ऐसा नहीं है। उपादानको गोणकर उपचरित हेतु वश उसमें आगे पीछे होनका उपचार कथन करना अन्य बात हैं " ऐसा जो आपका कहना है यह भी जैनागमके सर्वथा विरुद्ध है। क्योंकि धर्म द्रव्य अधर्म द्रव्य आकाशद्रव्य और कालद्रव्य इनमें वैभावकी शक्ति नहीं है । इनमें स्वाभाविकी शक्ति ही है इसलिये ये चार द्रव्य परनिमिससे विभावरूप परिणमन नहीं करते क्योंकि उनमें विभावरूप परिणमन करने की वैभाविकी शक्ति ही नहीं है जो पनिमित्त मिलनेपर वह विभावरूप परिणमन करजाय । उनमें तो "उपादानको गौणकर उपचरित वश उनमें आगे पीछे होनेका उपचार करना अन्य बात है" यह संभव ही नहीं, जो उपचरित चश उपादानको गौणकर कुछ कहा जाय । क्योंकि उनकी पर्याय उनमें अपने स्वभावरूप ही होती हैं, उनमें आगे पीछेका कोई मवाल ही नहीं है । किन्तु इतनी वात जरूर है कि उनका परिणमन अपने स्वभावमें होनेपर भी क्रम नियमित ही हो सो भी नियम नहीं है क्योंकि उनमें भी षट्गुण हानि वृद्धि रूप परिणमन हर समयमें होता ही रहता है और वह सर्वथा कमवद्ध ही होता है ऐसा नहीं कहा जा सकता क्योंकि षटगुण हानी वृद्धि अक्रमवद्ध भी होजाती है । जैसे कि पहिले समयमें संख्यातगुणी वृद्धि हुई तो दूसरे समय में एक अंश अधिक वृद्धि ही होगी या हानि नहीं होगी सा नियम नही हैं। दूसरे समयमें असंख्यात से अनन्तगुणी हानि वृद्धि भी हो सकती है अथवा संख्यात असंख्यात्त अनन्तभाग हानि वृद्धि भी हो सकती हैं। इसलिये इन धर्म द्रव्य अधर्मद्रव्य For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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