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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir .०० जन तत्त्व मीमामा को ही है और न टीकाकार अमृत चन्द्रसूर का हा है। खचाताना करके आप उनके श्राशयको पलटते है । यह आपकी सम्यग्ज्ञानकी बलिहारी है उनका आशय तो कंवल द्रव्यमें उत्पाद व्यय और धौव्यपणा दिखलानेका है, न कि मालामें मोतियों की तरह वस्तु में भूत भविष्यत और वर्तमान पर्यायांक दिन्नलानेका है ? यदि थोडी देर केलिये हम अापके कहने के बारमार यह मानलें कि पदा में कालिक सर्व पर्यायें विद्यमान रहती हैं तो फिर सिद्धात्मामें और ममारी आत्मामें क्या अंतर रह जायगा जिससे हम उनमें भेद कर सकेंगे? जब सिद्ध अवस्था भी भूत कालीन सर्व अशुद्ध पर्याय विद्यमान है तथा संसार अवस्थामें भविष्यकालीन सर्व शुद्ध सिद्ध पर्यायें विद्यमान है ना तो दोनू अवस्थामें आत्माको अवस्था समान ही होगा । फिर तो सिद्धपद प्राप्त करनेका पुरुषार्थ करना व्यर्थ ही ठहरेगा । इसलियं यातुमें भत भविष्यत् वर्तमान पर्यायें अवस्थित मान कर क्रमबद्ध पर्याय सिद्ध करना सर्वथा आगम विरुद्ध हैं। देखो स्वामिकार्तिकेयानुप्रेा पुष्ठ १३६ गाथा २५३ शंका-द्रव्य विषै पर्याय विद्यमान उपजे हैं कि अविनामात उपजे हैं ? उत्तर"जदि दव्वे पज्जाया वि विज्जमाणा तिरोहिदा संति ता उप्पत्ती विहला पडपिहिदे देवदत्तिव्य ।।२४३॥ स्व० पं० जयचन्दजी की हिन्दी टीका--जे द्रव्यविषे पर्याय हैं ते भी विद्यमान हैं अर तिरोहित कहिये ढके हैं ऐमा मानिये तो उत्पत्ति कहना विफल है । जैसे देवदत्त कपडा ढक्या था ताको उघाड्या तब कहै कि यह उपध्या सो ऐसा उपजना कहना तो परमार्थ नाहीं विफल है। तैसे द्रव्य पर्याय इकीको उघडा For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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