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जैन तत्त्व मीमांसा की
इस कथन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि स्याद्वाद के द्वारा ही वस्तु स्वरूप की सिद्धि होती है। एकान्त बाद से नहीं अतः जो एकान्तवादी है वह मिथ्यादृष्टि है। क्योंकि एकान्त आद से वस्तु स्वरूप की सिद्धि नहीं होती और बस्तु स्वरूप समझे विना मोक्ष मार्ग में प्रवृत्ति नहीं होती अतः मोक्षमार्ग में "प्रवृत्ति का नहीं होना यही तो मिथ्याष्ट्रिपना है। जो व्यक्ति व्यवहार धर्म का लोपकर परमार्थ की मिद्धि चाहता है वह मोक्ष मार्ग में प्रवृत्ति कैसे करसकता है ? अर्थात् नहीं कर सकता इसका भी कारण यह है कि मोचा मार्ग में प्रवृत्तिका करना वह व्यवहार है और वह व्यवहार का लोप करना चाहता है इमलिये व्यवहार लोपक की प्रवृत्ति मोक्षमार्ग में नहीं हो सकती है ।
ऊपर के कथन के दृशान्त द्वारा यह भी अच्छी तरह समझ में श्रा जाता है कि जब तक शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति नहीं होती तब तक व्यवहार नय और व्यवहार धर्म दोनू ही पुरुष कों मोक्ष प्राप्ति में हस्तावलम्बन की तुल्य है। अतः उस तीर्थ का लोप करने से परमार्थ का ही लोप होकर तीर्थ से प्राप्त होने वाला शुद्ध स्वरूप परमतत्त्व उसका भी नाश होगा । ऐसा प्राचार्यों का कहना है । किन्तु पण्डित फूलचन्द जो सिद्धान्त शास्त्री का इसके विपरीत यह कहना है कि व्यवहार का लोप करने से परमार्थ की सिद्धि होगी देखिये आपकी लिखी 'जैन - तत्त्वमीमांसा' पृष्ट । __“बहुत से मनीषी यह मानकर कि इससे व्यवहार का लोप हो जायगा ऐसे कल्पित सम्बन्धों को परमार्थ भूत मानने की चेष्ट करते हैं। परन्तु यही उनकी सबसे बड़ी भूल है। क्योंकि इस भूल के सुधरने से यदि उनके व्यवहार का लोप होकर परमाणे की प्राप्ति होती है तो अच्छा ही है ऐसे व्यवहार का लोप भवा
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