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समीक्षा
- अर्थ-निश्चय व्यवहार रूप जे दोय नय तिनिके विषय के भेदतें परस्पर विरोध है, तिस विरोध दूर करनहारा भ्यात्पद करि चिह्नित जो जिनभगवान का वचन तिस विष जो पुरःष रमें है प्रचुर प्रीति महित अभ्यास करें हैं ते स्वयं कहिये स्वयमेव आपे
आप वम्या है मोह कहिये मिथ्यात्व कर्म का उदय जिनने ते पुरुष इस समयसार जो शुद्ध आमा अतिशय रूप परम ज्योति प्रकाशमान ताहि शीघ्र पावे हैं अवलोकन करे हैं । कैसा है
समयसार ? अनव कहिये नवीन उपज्या नाही कमतें आच्छादित . था सो प्रगट व्यक्त रूप भया है। बहुरि कैसा है ? अनय कहिये जो मर्वथा एकान्त रूप कुनय ता की अपेक्षा कार अनुगण कहिये खंड्या न जाय है निर्वाध है । भावार्थ-जिन वचन स्याद्वाद रूप है जहा दोय नय के विषय का विरोध है, जैसे सद्रप है अमद्रप न होय, एक होय सो अनेक न होय, नित्य होय सो भनित्य न होय, भेद रूप होय सा अभेद रूप न होय, शुद्ध होय सो अशुद्ध न होय इत्यादिक नयनिक विषयनिविषं विरोध है । तहां जिन वचन कथं चत् विवक्षातें सत् असत् एक अनेक नित्य अनित्य भेद अभेद शुद्ध अशुद्ध जैसे विद्यमान वस्तु हैं तैसे कहि करि विराध मैटे है। झूठी कल्पना नाही करे है वातें द्रव्याथिक पर्यायार्थिक दोय नय में प्रयोजनके वशतें शुद्ध व्यार्थिक मुख्य करि निश्चय नय कहे हैं। अर अशुद्ध द्रव्यार्थिक रूप पर्यायार्थिक कू' गाण करि व्यवहार कहें हैं । ऐसे जिनवचन विर्षे जे पुरुष रमें हैं ते इस शुद्ध आत्मा कू यथार्थ पायें हैं। अन्य सर्वथा एकान्ती सांख्यादिक नाहीं पायें हैं। जातें सर्वथा एकान्त पक्षका वस्तु विषय नाहीं । एक धर्म मात्र ग्रहण करि वस्तु की असत्य कल्पना करे हैं। सो असत्यार्थ ही है गांधा सहित मिथ्याष्टि हैं ऐसे जानना ।
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