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जैन तत्त्व मीमांसा की
अर्थ-आचार्य कहे है---जो हे पुरुष हो तुम जो जिनमतकू प्रवर्तावोहो तो व्यवहार अर निश्चय इनि दोऊ नयनिकू मति भूलो ( छोडो) जातें एक जो व्यवहार नय ताक दिना तो तीर्थ कहिये व्यवहार मार्ग ताका नाश होयगा । बहुरि अन्य नय कहिये निश्चय नय विना तत्त्व का नाश होयगा।
इससे अधिक व्यवहार नय की और व्यवहार धर्म को क्या बुष्टि होगी। आचार्य कहते है कि व्यवहार धर्म तो तीर्थ स्वरूप है जां करि तिरिये सो तीर्थ, तार्थ का फल संसार से पार होना यह दोनू ही कार्य व्यवहार धर्म से सिद्ध होते हैं अतः इम व्यवहार धर्म का नाश करके जो परमार्थ की सिद्धि चाहते हैं वे तीर्थ और तीर्थ के फलका नाश करने वाले हैं अतः तीर्थका (व्यवहार धर्मका) लोप करने वाला तीर्थ का फल जो तिरना पार होना उसको वह तीन काल में भी नहीं पा सकता है क्योंकि तीर्थ के विना तिरना नहीं होता है और तिरे विना पार होना कैमा ? इसलिये आ. चार्य कहते हैं कि जो संसार समुद्र मे तिरना चाहते हो तो पोत के समान जो व्यवहार धर्म उसको मत छोडो । उक्त च गाथाकार कहते हैं कि व्यवहार नय तो व्यवहार मोक्ष मार्ग है यह तीर्थ स्वरूप है और निश्चय नय है वह तत्त्व स्वरूप है इसलिये दोनू नष को जैनी हो तो मति छोडो क्योंकि व्यवहार नय को छोडने से धर्म तीर्थ का नाश होयगा और नियश्च नय को छोडने से तत्त्व स्वरूप (वस्तु स्वरूप) का नाश होयगा इसी बात का स्पष्टी करण करते हुए टोकाकार कलश रूप काव्य कहते है। "उभयनयविरोधध्वंसिनि स्यात्पदांके।
जिनवचसि रमन्ते ये स्वयं वान्तमोहाः । सपदि समयसारं ते परंज्योतिरुच्चै
रनवमनयपक्षाचण्णमीक्षन्त एव ।।"
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