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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३२० जैन तत्त्व मीमामा की प्राप्यानन्तचतुष्टयस्वरूपेण परिणमनस्य योग्याः केवल योग्यतामात्रयुक्ताः ते भा सिद्धा संसारप्राप्ता एवं भवन्ति । कुतः तेषां मलस्य विगमे विनाशकरणे केषांचित्कनकोपलानामिव नियमेन सामग्री न संभवतीति कारणात् " ५५८ अर्थात् जे भव्यजीव भब्यत्व जो सम्यग्दर्शनादि सामग्रोको पाइ अनन्तचतुष्टय रूप होना ताको केवल योग्य ही है तद्रूपहोने के नाही ते भव्य सिद्ध हैं। सदाकाल संसारको प्राप्त रहै हैं काहेते सो कहिये हैं । जैसे केई सुवर्ण सहित पाषाण ऐसे हैं तिनके कदाचित मलके नाश करनेकी सामग्री न मिले तैसे केई भ य ऐसे हैं जिनके कर्ममल नाश करनेकी कदाचित मामग्रा नियमकरि न संभवे हैं । भावार्थ भव्यजीव दोय तरह के होते हैं एक भब्य और दूसरा दूरानदूर भब्य इनमें जे भब्य हैं ते तो सम्यग्दर्शनादि प्राप्त होनेके कारणोंको प्राप्त करि सम्यग्दर्शनादिकी प्राप्त कर लेते हैं और मोक्षमें पहुंच जाते हैं । किन्तु जे दूरानदूर भव्य हैं ते सम्यग्दर्शनादि प्राप्त करनेकी योग्यता रखते हुये भी सम्य ग्दर्शनादि प्राप्त करनेके कारणों को प्राप्त नहीं होते हैं जैसे सती विधवा स्त्री संतान पैदा करनेकी योग्यता धारण करती हुई भी पुरुषका संयोग रहित होनेसे पुत्र उत्पन्न नहीं करसकती उसी प्रकार दूरानदूर भव्य जीव सम्यग्दर्शनादि उत्पन्न कर मोक्ष जानेकी योग्यता रखतेहुये भी सम्यग्दर्शनादि प्राप्त करनेकी सामग्रीका समागम प्राप्त न होनेसे उनके सम्यग्दर्शनादिका प्रादुर्भाव नहीं होता इस कारण वे भब्यत्वकी योग्यता रखते हुये भी अभव्योंके समानही संसारमें परिभ्रमण करते ही रहते हैं मोक्षपदकी प्राप्ति वे भी नहीं कर सकते । क्योंकि उनको मोक्षप्राप्ति करने For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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