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जन तत्व मोमासा को
सो तिहुवण रज्जफल भुजदि कल्लाण पंचफलं" १८
-रयणसार इत्यादि सर्व ही आचार्योने व्यवहार धर्मको मोझकारण मानकर उसके करनेका जीवोंको उपदेश दिया है फिर भला बह अनादेय कैसे हो सकता है जिसके नाश करनेका पुरुषार्थ किया जाय अतः निश्चयधर्मका साधनभूत छ वहारधर्म साधक अवस्थामें सर्व प्रकारसे उपादेय है जब साध्यसिद्ध अवस्था प्राप्त हो जाती है तव साधनकी जरूरत नहीं रहती वह स्वयमेव छूट जाता है इसके पहले उसके अभाव करने का पुरुषार्थ करनेका प्रयत्न करना अपनी आत्माको धोखा देना है क्योंकि विना साधनके साध्यदशा प्राप्त नहीं होती यह अटल नियम है।
अव इस विषयको यहीं खतम करके आगे केवलज्ञानमीमांसा पर थोडा प्रकाश डालकर इस निवन्धको पूरा करूगा ।
हम ऊपर वतला चुके हैं कि सारी “जैनतस्वमीमांसा" क्रमवद्ध पर्यायकी सिद्धि, निमित्त अकिचितकर, व्यवहार मिथ्या, कार्य को निष्पत्ति में, उपादानकी योग्यता । यह मूल विषय हैं । इसीकी पुष्टिमें आपने सारा बल प्रयोग किया है पर जो वात
आगविरुद्ध है वह किसी हालतमें सही सिद्ध नहीं होनी ऋात: इसके बलज्ञान स्वभाव मीमांसां में भी क्रमवद्ध पर्यायकी पुष्टि करनेका प्रयत्न किया गया है आपका जो यह कहना है कि... जवसे द्रव्योंकी क्रमबद्ध पर्याय होतो हैं यह तथ्य प्रमुख पसे सबके सामने आया है तबसे ऐसे प्रश्न एक दो विद्वानों की ओर से भी उपस्थित किये जाने लगे हैं। उनके मनमें यह शल्य हैं कि केवलज्ञानको सव द्रव्यों और उनकी सव पर्यायों का ज्ञाता मान लेनेपर सव द्रन्योंकी पर्यायें क्रमवद्ध सिद्ध हो जावेगी किन्तु वे
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