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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा .. परमार्थभून तो . एक निर्विकल्प स्वसंवेदन ज्ञान ही है इसके अतिरिक्त सब अभृतार्थ ही है ! ऐसा मानना पड़ेगा परन्तु, आचार्यों ने श्रत प्रमाण को भी अ त केवली कहा है और निश्चय नय को भी भूतार्थ कहा है, तथा व्यवहार नय भी परमार्थ मार्ग सम्यग्ज्ञान रूपी है उसको भिन्न २ कर दिखाने वाला है सो भी सत्यार्थ है परमार्थ भूत है क्योंकि वस्तु का ज्ञान इन प्रमाण नयों के द्वारा ही होता है इसलिये भूतार्थ भी है । अभूतार्थ इसलिये हैं कि यह एक अखंडपिड वस्तु में भेद करके दिखाता है वस्तु अभेद रूप है उसमें भेद करना यह हो उसका अभूतार्थपणा है परन्तु वरतु में भेद करना यह झूठी कल्पना नहीं है। वस्तु भेदा और रूप है इसलिये उसका भेदाभेद रूप कथन करने वाले सर्ब ही नय और प्रमाण भूतार्थ हैं क्योंकि उसके विना भेदाभेद स्वरूप वस्तुका ज्ञान नहीं होता उसका ज्ञान कराने के लिये ही आचार्यों ने "प्रमाणनयैरधिगमः" ऐसा कहा है । अर्थात् प्रमाण और नयों के सही वस्तु का ज्ञान होता है, उसका लोप करने से वस्तु स्वरूप जानने रूप परमार्थ की सिद्धि कैसे होगी कदापि नहीं होंगी। यदि कहो कि शास्त्रों में व्यवहार नय को अभूतार्थ उपचरित' अपरमार्थ भूत कहा है, प्रमाण और निश्चय नय को अभूतार्थं चरित अपरमार्थ भूत नहीं कहा सो ठीक नहीं क्योंकि आचार्यो. तो निश्चय नय को भी सविकल मानकर मिथ्या कहा है। तथा छत प्रमाण परार्थ परोक्ष वह भी वस्तु स्वरूप को परोक्ष ही जानता है प्रत्यक्ष नहीं जान सकता इसलिए अपरमार्थ भूत भी कहा है। इसलिये केवल व्यवहार नय ही अपरमार्थ भूत क्यों ? यदि केवल व्यवहार नय ही अपरमार्थ भूत मिथ्या है तो "प्रमाणनयैरधिगम" इस सूत्र में वस्तु स्वरूप का बोध कराने में व्यवहार नय का महण किसलिये किया है ? किन्तु इस व्यवहार नय विना भो. For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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