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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३३२ जेन तत्त्व मीमांसा की होय तव तिस मिथ्यादर्शनादि भावकू अपने करनेके अनुकूल पण करि निमित्त मात्र होते संते आत्मा जो कर्ता निस बिना ही पुद्गलद्रव्य अप ही मोहनीयादि कर्म भाव करि परिणमे हैं। ऐसा अनादिकालका आत्मा के साथ पुद्गल द्रव्यका ौर पुगलद्रव्यका श्रात्मा के साथ परस्पर निमित्त नैमित्तिक भाव है । कर्ता दोऊ अपने अपने भावों के हैं यह निश्चय है । इस कथन से निमित्ती भी प्रधानता सिद्ध होजाती है। क्योंकि विना आत्मा के रागद्वेष परिणाम के पुद्गलद्रव्य भी कर्म - रूप नहीं परिणमन करता तथा कर्मके उदयके निमित्त विना आत्मा के भो रागद्वेष परिणाम नहीं होते हैं यह अटल नियम है। अतएव दोनोंका विभावरूप परिणमन परस्पर निमित्त नैमि तिक सम्बन्ध होने से ही होता है इसका निषेध करना जैनामसे सर्वथा विरुद्ध है । यह भी निश्चित है कि आत्मा अपने अज्ञान भावसे ही कर्मका कर्ता होय है मो ही आचार्य कहै हैं । " परमप्पाणं कुव्वदि अप्पा पियवरं करतो सो अण्णागमओ जीवो कम्माणं कारगो होदि " ॥ २४ ॥ टीका -- अयं किलाज्ञानेनात्मा परमात्मनोः परस्पर विशेषानिर्ज्ञाने सति परमात्मानं कुर्वन्नात्मानं च परं कुर्वस्वयमज्ञानमयीभूतः कर्मणां कर्ता प्रतिभाति तथाहि तथाविधानुभव संपादनसमर्थायाः रागोपसुखदुःखादिरूपाया: पुद्गलपरिणामावस्थायाः शीतोष्णानुभव संपादन समर्थायाः शीतोष्णायाः पुद्गल परिणामावस्थाया इव For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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