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जेन तत्त्व मीमांसा की
होय तव तिस मिथ्यादर्शनादि भावकू अपने करनेके अनुकूल पण करि निमित्त मात्र होते संते आत्मा जो कर्ता निस बिना ही पुद्गलद्रव्य अप ही मोहनीयादि कर्म भाव करि परिणमे हैं। ऐसा अनादिकालका आत्मा के साथ पुद्गल द्रव्यका ौर पुगलद्रव्यका श्रात्मा के साथ परस्पर निमित्त नैमित्तिक भाव है । कर्ता दोऊ अपने अपने भावों के हैं यह निश्चय है ।
इस कथन से निमित्ती भी प्रधानता सिद्ध होजाती है। क्योंकि विना आत्मा के रागद्वेष परिणाम के पुद्गलद्रव्य भी कर्म - रूप नहीं परिणमन करता तथा कर्मके उदयके निमित्त विना आत्मा के भो रागद्वेष परिणाम नहीं होते हैं यह अटल नियम है। अतएव दोनोंका विभावरूप परिणमन परस्पर निमित्त नैमि तिक सम्बन्ध होने से ही होता है इसका निषेध करना जैनामसे सर्वथा विरुद्ध है ।
यह भी निश्चित है कि आत्मा अपने अज्ञान भावसे ही कर्मका कर्ता होय है मो ही आचार्य कहै हैं ।
" परमप्पाणं कुव्वदि अप्पा पियवरं करतो सो अण्णागमओ जीवो कम्माणं कारगो होदि " ॥ २४ ॥
टीका -- अयं किलाज्ञानेनात्मा परमात्मनोः परस्पर विशेषानिर्ज्ञाने सति परमात्मानं कुर्वन्नात्मानं च परं कुर्वस्वयमज्ञानमयीभूतः कर्मणां कर्ता प्रतिभाति तथाहि तथाविधानुभव संपादनसमर्थायाः रागोपसुखदुःखादिरूपाया: पुद्गलपरिणामावस्थायाः शीतोष्णानुभव संपादन समर्थायाः शीतोष्णायाः पुद्गल परिणामावस्थाया इव
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