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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८० जैन तत्त्व मीमांसा की - आदेश भी यही है कि हमारे ज्ञानमें सब कुछ झलकता है वह झलकने दो तुम तो तुम्हारा कर्तव्य कर्म करते रहो तुमको यह मालूम नहीं है कि हमारा किस समय क्या होने वाला है इसलिये तुम तो हमारे वताये हुये मोक्षमार्ग में गमन करते रहो इसीमें तुम्हारा कल्याण है । हमारे ज्ञान के बल पर तुम उदासीन होकर बैठोगे तो खता खाओगे । इस उपदेशको न मानकर जो क्रमवद्ध पर्याय के ऊपर निर्भर कर रहता है वह आलसी है। "वन्ध वढावे अंध व्है, ते आलसी अजान । मुक्तहेतु करणी. कर ते नर उद्यमवान" १० बन्धद्वार समयसार नाटक ओ व्यक्ति भगवानके ज्ञानके वल पर अपनी क्रमवद्ध पर्याय मानकर निराश होकर बैठता है वह अज्ञानी है, आलसी है, कर्मके बन्धको बढाने वाला है। किन्तु जो सज्जन अपने पैरा पर खडे होकर भगवानके वताये हुये मोक्षमार्ग में गमन करते हैं वे उद्यमी हैं पुरुषार्थी हैं वे ही संसारसे पार होते हैं। केवलज्ञानीकी वात तो जाने दीजिये, मति श्रुत झान वाला भो निमित्तशामी भूत भविष्यत् की बात बता देता है जिससे क्या क्रमवद्ध पर्याय सिद्ध हो जाती है ? और क्या वह पर्याय जोत्रके साथ अंकित रहती है इसलिये वह वता सकता है ! कदापि नहीं। वह तो अणछती होनेवाली पर्यागको ही निमिच झानसे बताता है उसमें निमित्त ही प्रधान है । एक उदाहरण स्वरूप दृष्टान्त उधृत कर देते हैं यह किस शास्त्र में वर्णित है यह तो इस वक्त स्मरण । नहीं है पर उसका भाव यह है कि एक निधन ब्राह्मण भोजन करने के लिये घर पर आया तो उसकी स्त्रीने उसकी थाली में कोडियां लाकर पटकदी और कहा कि घरमें तो कुछ नहीं है For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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