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जैन तत्त्व मीमांसा की
डारि एक में अनेक खोजै सो सुबुद्धि खोजि जीवै वादि मर
सांची कहावति है। एक में अनेक है अनेक ही में एक है सो एक न अनेक कछु कह्या न परत है । करता अकरता है भोगता अभोगता है उपजे न उपजत मरे न मरत है। बोलत विचारत न बोले न विचारे कछू भेखको न भाजन पै भेख सो धरत है। ऐसे प्रभु चेतन अचेतनकी संगतीसों उलट पलट नटवाजी सी करत है।
___इसलिये श्राचार्य कहते हैं किकेई कहे जीव क्षणभंगुर केई कहे कर्मकरतार । केई कर्मरहित नित जंपहि नय अनन्त नाना परकार । जे एकान्त गहे ते मूख पंडित अनेकान्त पखधार । जैसे-भिन्न मुकतागण गुणसों, गहत कहावै हार ।।
सर्वविशुद्धिअधिकार इस उपरोक्त कथनसे यह भलीभांति समभ में आजाता है कि स्याद्वादसे ही वस्तुस्वरूपकी सिद्धि होती है ! एकान्तबादसे नह क्योंकि पदार्थ अनन्तगुणात्मक है उन अनन्तगुणोंका बोध करा. नेवाली नयभी अनंत है वह मूल दोभेदोंमें बंटी हुई है ! एक द्रव्यार्थिक और दूसरो पर्यायार्थिक, इमीका नाम निश्चय और व्यवहार भी है अर्थात् द्रव्यार्थिक कहो या निश्चय कहो । पर्यायाधिक कहो या व्यवहार कहो । एकही बात है । निश्चयनय तो एक ही है वह अनेक नहीं है। इसका कारण यह है कि वा द्रव्यको अखंड अभेदरूपसे ग्रहण करता है । वह पदार्थमें भेद का उत्पादक नहीं है
भेदकं विना अनेकता आ नहीं सक्ती इस विषयमें प्राचार्य
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