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जैन तत्त्वमीमांसा की
भैया भगोती दास जीने उपादानकी तरफ से जो यह दोहा
कहा है वह सर्वथा आगमविरुद्ध पडता है ।
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" छोर ध्यानकी धारणा और योगकी रीत ।
तोरि कर्मके जालको, जोर लई शिवप्रीत " ३३
इस दोहाका अर्थ पं० फूलचन्द्रजीने निम्नप्रकार किया है। सो सत्य है इस दोहाका अर्थ ऐसा ही बैठता है ।
" जो जीव ध्यान की धारणाको छोडकर और योगकी परि पाटीको मोड कर कर्मके जालको तोड देते हैं वे मोक्षसे प्रीति जोडते हैं । अर्थात् मोक्ष जाते हैं
""
संभव है, कानजी स्वामी और आप इसीलिये निमित्तको अकिंचित्कर समझ रहे है किन्तु पंडितजी ! ऐसा एकाध तो उदाहरण पेस करिये कि ध्यानकी धारणा को छोड़कर योगों से मुहमोडकर को तोड कर अमुक अमुक जीव मोक्ष गये। जिना गम तो ऐसा नहीं कहते कि ध्यानकी धारणा को छोडने वाले जीव कर्मोंको काट सकते हैं और मोक्ष जासकते हैं। जिनागम तो डंके की चोट यह कहते हैं कि
" इदानीं शुक्लध्यानं निरूपयितव्यम् । तद्वच्यमाणचतुर्विकल्पम् । तत्राद्ययोः स्वामिनिर्देशार्थमिदमुच्यते
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अर्थात् शुक्लध्यानके चार भेदोंमें आदिके दोय ध्यानके स्वामी कौन होते हैं उसका आचार्य यहां निरूपण करते हैं -
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शुक्ले चाद्य पूर्वविदः || ३७ || तत्वार्थ सूत्रे टीका - पूर्वविदो भवतः श्रुतकेवलिन इत्यर्थः श्रेण्यारोहखात्प्राग्धय श्रेण्यां शुक्ले इति व्याख्यायते ।