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जेन तत्त्वमीमांसा की
जो सज्जन विष वृक्ष लगाये अपने आप न डारे काट | तो क्या ऐसा संभव सत्रका ईश्वर करदे सपन पाट । कीच लगा क्या धोना अच्छा अच्छा है ना स्पर्श करे वह कहां की है बुद्धिमानी ? दुष्ट वनाय संहार करें १८ विरधी धर्म न वस्तु मांहि ना स्वभावको तजती है। अग्निम जो रहे उष्ण तो शीतलता नहीं भजती हैं ।
इस सिद्धान्त अनुसार बस्तुका ना स्वभाव भी हट सकता अतः ईस भी जगत बना कर फिर विनाश क्या कर सकता ? १६ अव ईश्वरकी रक्षा परखो कैसी अच्छी किया करे ।
निस दिन असंख्य प्राणी मरते उन पर क्यों न दया घरे ? अथवा केवल भक्त बचावे भक्तों को क्यों मरने दे ? नित प्रति भक्त पिटाये जाते दुखमें क्यों वह पडने दे । २० मंदिर मूर्ति टूटे उनकी कैसे समझे रक्षावान । क्या ईश्वर में शक्ती नही । श्रथग तोड कटी वलवान ? क्यों कर रक्षा ना वे करते इसका जरा करो विचार मिथ्यावाद को दूर हटा कर प्रगट करहु सत्य विचार २१ उक्त हेतुसे ईश्वर करता हरता नाहीं रक्षक बान मिथ्याबुद्धिसे कर्ता माने अतः करता वादा झूठ बखान । विश्व अनादिमें जिय भ्रमता कर्मोदयसे जगत जहान
सम्यकू सहित तपश्चरण करके करों जीवका (राशि) कल्याण २२
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इत्यादि युक्तियोंसे ईश्वर कर्तापनेका खंडन किया है फिर उनको कर्ता मान कर उनकी स्तुति करें यह वात तो वन नहीं सकती भतः स्तुति स्तोत्रोंमें जो श्राचार्योंने ईश्वर कर्तापने के शब्दों का प्रयोग किया है वह कारण में कार्य का उपचार करके किया है । बर्तमान समय में भी यह पद्धति देखने में आती है कि कोई किसी के जरिये लाभ उठाता है तो यही कहने में आता है
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