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तत्त्वभावना
मूलश्लोकानुसार छन्द गीता यह नारि पुन सुमित्र माता है हमारी यह बहन । पुत्री अरी यह घर नगर मेरा यही है सार बन ॥ जब तक रहे यह नीच मति संसार का वर्सन करे। तब कुःखहरु हन्त्री मुकति तिय किस तरह सुख से बरे ॥१०॥
उस्थानिका-- आगे कहते हैं कि भेद विज्ञान से ही मुक्ति हो सकती है।
नाहं कस्यचिलिम कश्वन न मे भावः परो विद्यते । मुक्त्वात्मानमपास्तकर्मसमिति ज्ञानेक्षणालंकुतिम् ॥ यस्यैषा मतिरस्ति वेतसि सदा जातात्मतत्वस्थितः। बंधस्तस्य न यंत्रितं त्रिभुवनं संसारिकंबन्धनः ॥११॥
अन्वयार्थ - (ज्ञानेक्षणालंकृतिम) ज्ञान दर्शन स्वभाव से शोभायमान तथा (अपास्तकर्मसमिति) द्रव्यकर्म भाव कर्म नोकर्म के समुदाय को दूर रखने वाले (आत्मानम् ) आत्मा को (मुक्त्वा) छोड़कर (कश्चन) कोई भी (परः) अन्य (भाव:) भाव (मे) मेरा (न) नहीं (विद्यते) है (न) और न (अहं) मैं (कस्यचित्) किसी अन्य का (अस्मि) हूं (एषा) ऐबी (मतिः) बुद्धि (ज्ञातात्मतत्वस्थितेः) आत्मस्वरूप की मर्यादा को जानने वाले (यस्य) जिस किसी के (चेतसि) चित्त में (सदा) नित्य (अस्ति) रहा करती है (तस्य) उस महात्मा के (बंधः न) कर्मों का बंध नहीं होता, यों तो (त्रिभवन) तीनों लोक के संसारी प्राणी (संसारिके:वन्धनैः) संसार के बंधनों से (यंत्रित) जकड़े हुए हैं। : भावार्थ- यहां पर आचार्य ने सम्यग्दर्शनपूर्वक सम्यग्ज्ञानकी