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तस्वभावना
मान, माया, लोभ, भय, प्रमाद आदि भावोंके आक्रमण से नष्ट हो जाते हैं। इसलिए जो ध्यानका अभ्यास करना चाहें उनको इन भावोंसे दूर रहना चाहिए तथा उन निमित्तोंसे बचना चाहिए जिनके द्वारा मन, धाम क्रोधादि भावोंमें फंस जावे। इसीलिए उनको आरम्भ परिग्रह काम करना पाहिए। हशा के प्रपंचजालों से अलग रहना चाहिए । लौकिकजनों की संगति से बचना चाहिए । स्त्रियों के संसर्ग से दूर रहना चाहिए । वनों में व एकांत स्थानों में बैठना, मास्त्र स्वाध्याय करना व ध्यान करना चाहिए, अल्पाहारी होना चाहिए । मिष्ट हितकारी वचन बोलने चाहिए । स्वाध्याय व ज्ञान के विचार में नित्य बनरक्त होना चाहिए । जिन-जिन कारयों से मनमें चंचलता हो जाये व कमायका अंग उठ जाये उन सब निमित्तों से परे रहकर व बिलकुल मन को निश्चित करके आत्मध्यान का कन्यास करना चाहिए।
श्री शुभद्राचार्य ज्ञानार्णध में कहते हैं कि कोतरागी को हो बामध्यान की सिद्धि होती है
रागादिपंकविलेषारप्रसम्मै चित्तवारिलि। परिस्फरति निःशेषं मुनेस्तुकबम्बकम् ॥१७॥ स कोपि परमानम्बो धोतरागस्य जायते।
येन लोकनयश्वर्यमप्यचिन्त्यं तपाय ॥१८| भावार्थ-रागद्वेषादि कोचड़ के हट जाने से मुनि के निर्मल मनरूपी जलमें सम्पूर्ण वस्तु का सर्वस्व प्रकट होता है अर्थात् मात्मा का ध्यान प्रकाशमान होता है। बोसरागी को हो ऐसा कोई परमानंद प्राप्त होता है जिसके सामने तीन लोक का भी अनित्य ऐश्वयं तृण के समान मालूम होता है।