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सत्त्वभावना
मुनि सीध चंद्रोदय में कहते हैं
यः कषायपवीरमितो बोधवहिरमलोल्लसदशः। किन मोहातमिर विसयन भासः पिचाप
भावार्थ-जो क्रोधादि कषायों की हवासे स्पषित नहीं होता है, जो ज्ञानरूपी अग्नि को धारने वाला है, जो निर्मलपने उगोत मान है ऐसा चैतन्यरूपी दीपक जगतमें प्रकाशमान है तो क्या वह मोहरूपी अंधेरेको नहीं बंटन करेगा? वास्तव में यह दीपक मैं आत्मा ही हूँ। वही मुनि एकरवाशीति में कहते हैं
संयोगेनं पश यातं मतस्तत्सकलं परम् ।
तत्परिरमागयोगेम मुक्तीहमिति मे मतिः ॥२७॥ भावार्थ-जो कुछ शरीरादि का संयोग मेरे साथ चला आ रहा है वह सब मझसे पर है-भिन्न है। जब मैं उमसे मोह त्याग देता हूँ मैं मानो मुक्तस्प ही हूं ऐसी मेरो बुद्धि है। इस तरह के आत्मतत्वको ध्याना परम सुखका कारण है।
भूल इलोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द शशि सूरजग्रह तारकादि ये सब लोग प्रकाशी रहें। पर आतमविन सन समह जैसे कुछ भी न कोमस लहें। जो विज्ञानमई सुनिर्मल महा यतिजन जिसे ध्यावते । वह निश्चल है आरमतत्व बुधजन निज देह में पावते ॥५५॥
उत्थानिका-आगे कहते हैं कि अज्ञानी मन मरण बानेवाला है इसको नहीं देखता हुमा अधर्म में फंसा रहता है--