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तत्त्वभावना
किं किं दुःखं न यातो विषयवशगतो येन जोवो विषा। त्वं तेनैनोऽतिवर्त्य प्रसममिह मना जैनतत्त्वे निधेहि ॥४१८
भावार्थ-अरे पापो, अति दुष्ट, छूतादि व्यसनों में बुद्धि को लगाने वाला, दया रहित, सच्चे मार्ग से बुद्धि को हटाने वाला, न्याय व अन्याय से अनजान ! तूने इन्द्रियों के विषयों के वश में पड़ करके क्या क्या दुःख नहीं सहन किए हैं, अब सू इन पापों से बच्छी तरह मुंह मोड़ और अपना मन जैनतत्त्व में धारण कर ।
मूल श्लोकानुसार मालिनी छन्द निजतनके काजे या कुटुम्बार्य प्राणी। करत विविध कमें पाप बांधत अमानी॥ एकाकी जावे मऊं में दुख बढ़ाये।
कोई नहिं साथी मूद आपी ठगावे ॥११४ ॥ उत्थानिका-आगे कहते हैं जब आत्मा के साथ यह शरीर ही नहीं जा सकता है तब अन्य पदार्थ कैसे साथ जावेंगे
वसनवाहनमोजनमंदिरः सुखकरश्चिरवासमुपासितम् । अजति यवतमं न कलेवरं शिमपरं क्त तन गमिष्यति ।११५
मम्वयार्ष-(सुखकरः) सुखदाई (वसनवाहनभोजनमंदिरः) कपड़े, सवारी, भोजन तथा मकानों के द्वारा (चिरवासम्)दीर्घकालबास करके (उपासितम्) सेवन किया हुआ (कलेवर) यह शरीर (यत्र) जहाँ (सम) साथ (न ब्रजति)नहीं जाता है (त) वहाँ (बत) खेदको बात है (अपरं किं) दूसरा क्या (गमिष्यति) साथ जावेगा?
भावार्य-जब मरण आ जाता है तब इस जीव को अकेला ही जाना पड़ा है। इस शरीर को तरह तरह के भोगों से तृप्त