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आत्मध्यान का उपाय
यदि एक-इन्द्रिय प्रादि देही घूमते फिरते मही, जिनदेव ! मेरी भूल से पोड़ित हुए होवे कहीं। टुकड़े हुए हों, मल गये हों, चोट खाये हों कमी, तो नाथ ! वे दुष्टाचरण मेरे बनें झूठे सभी ॥५॥ सन्मुक्ति के मार्ग से प्रतिफल पथ मैंने लिया. पञ्चेन्द्रियों चारों कषायों में स्वमन मैंने किया। इस हेतु शुद्ध चरित्र का जो लोप मुझसे हो गया, दुष्कर्म वह मिथ्यात्वको हो प्राप्त प्रभु ! करिए क्या ॥६॥ चारों कषायों से, वचन, मन, काय से जो पाप हैमुझसे हुमा, हे नाथ ! वह कारण हुआ भव ताप है । अब मारता हूं मैं उसे आलोचना-निन्दादि से, ज्यों सकल विष को वैद्यवर है मारता मन्त्रादि से ॥७॥ जिनदेव ! शुद्ध धारित्र का मुझसे अतिक्रम जो हुमा, प्रज्ञान और प्रभाव से व्रत का व्यतिक्रम जो हुमा । अतिचार और अनाचरण जो जो हुए मुझसे प्रभो ! सबकी मलिनता मेटने को प्रतिक्रम करता विभो !uth मन की विमलता नष्ट होने को अतिक्रम है कहा, प्रौ शीलचर्या के बिलंघन को व्यतिक्रम है कहा । हे नाथ ! विषयों में लपटने को कहा अतिचार है, पासपत अतिशय विषय में रहना महानाचार है ॥६॥ यदि अर्थ, मात्रा वाक्यमें परमें पड़ी त्रुटि हो कहीं,