Book Title: Tattvabhagana
Author(s): Mahavir Prasad Jain
Publisher: Bishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf

View full book text
Previous | Next

Page 370
________________ Un [ ३४३ तो भूलसे ही वह हुई, मैंने उसे जाना नहीं । जिनदेव वारणी । तो क्षमा उसको तुरत कर बीजिए, मेरे हृदय में देवि ! केवलज्ञान को भर दीजिए ॥१०॥ हे देवि ! तेरी वन्दना मैं कर रहा हूं इसलिए, चिन्तामणि- प्रभु है सभी वरदान देने के लिए । परिणाम-शुद्धि समाधि मुझमें बोधिका संचार हो, प्राप्ति स्थात्माकी तथा शिवसौख्यकी, भवपारहो । ११ मुनिनायकों के वृत्व जिसको स्मरण करते हैं सदा, जिसका सभी नर अमरपति भी स्तवन करते हैं सदा । सच्छास्त्र वेद-पुराण जिसको सर्वदा हैं गा रहे, वह देव का भी देव बस मेरे हृदय में श्रा रहे ॥ १२॥ जो प्रन्तरहित सुबोध-दर्शन और सौख्य स्वरूप है, जो सब विकारों से रहित, जिससे अलग भवकूप है । मिलता बिना न समाधि जो, परमात्म जिसका नामहै, देवेश वह उर श्री बसे मेरा खुला हृद्धाम है ॥ ॥ १३ ॥ जो काट देता है जगत के दुःख निर्मित जाल फो, जो देख लेता है जगत की भीतरी भी चाल को, योगी जिसे है देख सकते, अन्तरात्मा जो स्वयम्, देवेश ! यह मेरे हृदय पुर का निवासी हो स्वयम् ॥ १४ ॥ कैवल्य के सन्मार्ग को दिखला रहा है जो हमें, जो जन्म के या मरण के पड़ता न दुख- सन्दोह में । अत्मिध्यान का उपाय

Loading...

Page Navigation
1 ... 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389