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आत्मध्यान का उपाय
६. छठा कायोत्सर्ग कर्म कायोत्सर्ग विधान करूं प्रतिम सुखदाई | कायत्यजनमय होय काय सबको दुखदाई ॥ पूरब दक्षिण नमूं दिशा पश्चिम उत्तर मैं । जिनगृह वंदन करूं हरूं भवपापतिमिर मैं ॥२६॥ शिरोनति मैं करूं नम मस्तक पर धरिकै । श्रावर्तादिक क्रिया करूं मन वच मद हरिके ॥ तीन लोक जिन भवनमांहि जिन है जुधकृत्रिम । कृत्रिम हैं द्वीप महीं देवों लिंग प श्राठ कोड़ि परि छप्पन लाख जु सहस सत्याणं । क्यारि शतक पर असी एक जिनमंदिर जाणूं ॥ व्यंतर ज्योतिष मांहि संख्य रहिते जिन मंदिर । ते सब बंदन करूं हरहु मम मम पाप संघकर ॥२८॥ सामायिकसम नाहि और कोउ वैर मिटायक । सामायिकसमं नाहि और कोउ मंत्री दायक ॥। श्रावक अणुव्रत आदि श्रन्त सप्तम गुणथानक । यह आवश्यक किये होय निश्चय दुखहानक ॥२६॥ जे भवि प्रातम-काज करण उद्यम के धारी। ते सब काज विहाय करो सामाथि सारी ॥
राग रोष मदमोह क्रोध लोभादिक जे सब ।
बुध 'महाचन्द्र' विलाय जाय तातें कोज्यो श्रम ॥३०॥
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