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आरमध्यान का उपाय
आत्म सम्बोधन
समझ उर धर कहत गुरुवर, आत्मचिंतन को घड़ी है। भव उवधि तन अथिर नौका, बीच मंसधारा पड़ी है ॥ टेक ॥ आरम से है पृथक तत-धन, सोधरे नम कर रहा क्या ? लखि अवस्था कर्मजड़ को बोल उनसे डर रहा था ? ज्ञान-दर्शन खेतमा सम और जग में कौन है रे ? दे सके दुख जो मुझे वह शक्ति ऐसी कौन है रे ? कर्म सुख-दुख ये रहे हैं, मान्यता ऐसी करी है। चेट-वेतन प्राप्त असर आम की है ||१|| जिस समय हो आत्मदृष्टि, कर्म पर-थर कांपते हैं। भाव की एकाग्रता लखि, छोड़ खद ही भागते हैं । ले समझ में काम या फिर चतुर्गति ही में विचर ले मोक्ष अरु संसार क्या है, फैसला खुद हो समझ ले || दूर कर सुविधा हृदय से, फिर कहाँ घोखा घी है । समझ उर धर कहत गुरुवर, आत्मचिन्तन की घड़ी है ॥२॥ कुम्बकुम्बाचार्य गुरुवर, यह सदा ही
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कहि रहे हैं। समझना खूब ही पड़ेगा, भाव तेरे बहि रहे हैं शुभ क्रिया को धमं माना, भव इसी से घर रहा है । है न पर से भाव तेरा, भाव खुद ही कर रहा है ॥ है निमित्त पर दृष्टि सेरी, बान हो ऐसी पड़ी है। घेत-घतन प्राप्त अवसर, आत्म चिन्तन की घड़ी है ॥ ३ ॥ भाव को एकाग्रता रुचि, लीनता पुरुषार्थ कर ले। मुक्ति बन्धन रूप क्या है, बस इसी का अर्थ कर ले ।। भिन्न हूं पर से सदा मैं, इस मान्यता में लीन हो जा । द्रव्य-गुण-पर्याय भुक्ता, आत्म सुख घिर नींद सो जा । आत्म गुण घर लाल अनुपम, शुद्ध रत्नवये जड़ी है। समश उर घर फक्त गुरुवर, आत्मचिन्तन की घड़ी है ॥४॥