Book Title: Tattvabhagana
Author(s): Mahavir Prasad Jain
Publisher: Bishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf

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Page 385
________________ ३५८ आत्मध्यान का उपाय मैंने छली और मायावी, हो असत्य-आचरण किया। पर निन्दागालो, चुगली जो, मुंह पर आया बमन किया ।।१०॥ मिरमिमान उज्ज्वल मानस हो, सवा सत्य का ध्यान रहे । निर्मल-जल की सरिता सदश, हिय में निर्मल ज्ञान बहे ॥११॥ मुनि, चक्री शको के हिय में, जिस अनन्त का ध्यान रहे। भाते वेद पुराण जिसे वह परम देव मम हृदय रहे ॥१३॥ वर्शन-ज्ञान स्वभावो जिसने, सब विकार हों वमन किये। परम ध्यान गोचर परमातम, परमदेव मा हृदय रहे ।।१३॥ जो भव दुख का विध्वंसक है,विश्व-विलोकी जिसका ज्ञान । योगी-जन के धान पम्प वह बस हृदय में वेव महान ।।१४॥ मुक्ति-मार्ग का दिग्दर्शक है, जन्म मरण से परम अतीत । निष्कलंक लोक्य-दर्शि, वे देव रहे मम हुक्य समीप ॥१५॥ निखिल विश्व के वशीकरण वे, राग रहे ना द्वेष रहे। शुद्ध अतीन्द्रिय ज्ञान स्वरूपी, परम देव मम हृदय रहे ॥१६॥ देख रहा जो निखिल विश्व को, कर्म कलंक विहोन विचित्र । स्वच्छ विनिर्मलनिर्विकार वह. देव करे मम हृदय पवित्र ॥१७॥ कर्म-कलंक अछूत न जिसको, कमो छू सकें विध्य प्रकाश । मोह तिमिर को भेव चला जो, परमशरण मुझको वह आप्त ।१८ जिसकी दिव्य ज्योति के आगे, फोका पड़ता सूर्य प्रकाश । स्वयं शान मय स्वपर प्रकाशी,परमशरण मशको वह आप्त ।१९ जिसके ज्ञान रूप वर्पण में, स्पष्ट झलकते सभी पदार्थ । आदिअन्त से रहित,शांत,शिव,परमशरण मुझको वह आप्त ।२० जैसे अग्नि जलाती तक को, तसे नष्ट हए स्वयमेव । भय-विषाप चिन्ता सब जिसके,परमशरण ममको वह देव २१

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