Book Title: Tattvabhagana
Author(s): Mahavir Prasad Jain
Publisher: Bishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
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आत्मध्यान का उपाय
मैं धनादि जग जाल माँहि फँसि रूप न जाण्यो । एकेंद्रिय दे श्रादि जंतु को प्राण हरायो ॥ ते सब जीव समूह सुनो मेरी यह श्ररजी । भव भव कोअपराध छिमा कोज्योकर मरजी ।।१५ ४. चतुर्थ स्तवन कर्म
नमीं ऋषभ जिनदेव प्रणित जिन जोति कर्म को । सम्भव भव दुख हरण कर ग्रभिनन्द शर्म को ॥ सुमति सुमति दातार तार भव सिंधु पार कर पदम् प्रभ पद्माभ भानि भवमीति प्रीति पर ॥ १६ ॥ श्रीसुपार्श्व कृत पाश नाश भव जास शुद्ध कर भी चन्द्र प्रम चन्द्रकान्तिसम देह कांतिधर । पुष्पदन्त दमि दोष कोष भविपोष रोषहर । शीतल शीतल करण हरण भवताप दोष कर ॥१७॥ श्रयरूप जिनश्रेय ध्येय नित सेय भव्य जान । वासुपूज्य शत पूज्य वासवादिक भव भय हन ॥ विमल विमलमति देन प्रन्तगत है अनन्त जिन । धर्मशर्मशिवकरण शान्ति जिन शान्ति विधायिन ॥१८ कुथु कु थुमुख जीवपाल अरनाथ जाल हर । मल्लिमल्लसम मोहमल्लमारन प्रचारघर | मुनिसुव्रत व्रतकरण ननत सुरसंघ नमिजिन | नेमिनाथ जिन लेनि धर्मस्थ माँहि ज्ञानधन ॥१६॥ पार्श्वनाथ जिनपार्श्व उपलसम मोक्ष रमापति । वर्द्धमान जिन नमू वमूं भवदुःख कर्मकृत ॥

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