Book Title: Tattvabhagana
Author(s): Mahavir Prasad Jain
Publisher: Bishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf

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Page 379
________________ ... ३५२ ] मात्मध्यान का उपाय अंजन प्रादिक चोर महा घनचोर पापमय । तिनके जे अपराध भये ते क्षमा क्षमा किया । मेरे जे प्रब दोष मये ते क्षमहु दयानिषि । यह पडिकोड़ो कियो आदि षट्कर्म माहि विधि ॥५॥ २. वित्तीय प्रत्याख्यान कर्म इसके आदि व अन्त में आलोचना पाठ वोलकर फिर तीसरे सामायिक कर्म का पाठ चाहिए। जो प्रमादवशि होय विराधे जीव घनेरे। तिन को जो अपराध भयो मेरे अघ रे ।। सो सब झूठो होउ जगतपति के परसादै । जा प्रसावतें मिले सुख दुःख न लाये ॥६॥ मैं पापी निर्लज्ज दया करि होन महाशठ । किए पाप अघ र पापमति होय चित्त दुठ॥ निहं मैं बार बार निज जिय को गरहूं। सबविधि धर्म उपाय पाय फिर पापहि करहूं ॥७॥ दुर्लभ है नर जन्म तथा श्रावक कुल भारी । सत संगति संयोग धर्म जिन श्रद्धाधारी ।। जिन बचनामृत धार समावत जिन वानी । तोह जीव संघारे धिक धिक धिक हम जानी ॥६॥ इन्द्रिय लंपट होय खोय निज ज्ञान जमा सब । अज्ञानी जिमि कर तिसि विधि हिंसक व्है अब ।। गमनागमन करतो जीव विराधे मोले ।

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