Book Title: Tattvabhagana
Author(s): Mahavir Prasad Jain
Publisher: Bishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf

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Page 380
________________ [ ३५३ । ते सब दोष किये निदूं अब मन वच तोले ॥६॥ श्रालोचन विधि को दोष लागे जु घनेरे । ते सब दोष विनाश होउ तुम तें जिन मेरे ॥ बार बार इस भांति मोह मद दोष कुटिलता । ईर्षादिक तँ मये निदि ये जे भयभीता ॥ १० ॥ ३. तृतीय सामायिक भाव कर्म सब जीवन में मेरे समता भाव जभ्यां है । सब जिय मो सम समता राख्यो भाव लग्यो है ॥ प्रातं रौद्र द्वय ध्यान छाँड़ि करिहूं सामायिक । संजय मो कब शुद्ध होय भाव बधायक ॥११॥ पृथ्वी जल अरु श्रग्नि वायु चउ काय वनस्पति । पंचहि यावर माहिं तथा श्रस जीव बसें जित || बेइन्द्रिय तिय चज पंचेद्रियमहि जीव सय । तिन तें क्षमा कराऊं मुझ पर क्षमा करो अब इस अवसर में मेरे सब सम कंचन अरु तृण ॥ १२॥ महल मसान समान शत्रु अरु मित्रह समगा ॥ जामन मरण समान जानि हम समता कीनी । सामायिक का काल जिते यह भाव नवीनी ॥१३॥ मेरो है इक प्रातम तामें ममत जु कोनो । और सबै मम भिन्न जाति ममता रसभीनो ॥ आत्मध्यान का उपाय मात पिता सुत बंधु मित्र तिय आदि सबै यह । मोते न्यारे जानि जथारथ रूप करयो गह ५.१४ ॥

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