Book Title: Tattvabhagana
Author(s): Mahavir Prasad Jain
Publisher: Bishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf

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Page 378
________________ आत्मध्यान का उपाय [३५१ सामायिक पाठ भाषा १. प्रतिक्रमण फर्म काल अनंत भ्रम्यो जग में सहिये दुख भारी। जन्म मरण नित किये पाग को ठहै अधिकारी ।। कोटि भातर माहि मिलन दुर्लभ सामायिक' । धन्य प्राज मैं भयो योग मिलियो सुख वायक ॥१॥ हे सर्वज्ञ जिनेश ! किये जे पाप जु मैं अब । ते सब मन-वच-काय-योग की गुप्ति विना लभ ॥ पान समीप हजूर माहि मैं खड़ो खड़ो सब । दोष कहूं सो सुनो करो नठ दुःख देहि अब ॥२॥ क्रोधमानमवलोभ मोह मायावशि प्रानी। दुःख सहित जे किये दया तिनकी नहिं पानी ।। बिना प्रयोजन एकद्रिय वि ति चउ पंचेद्रिय । प्राप प्रसादहि मिदै दोष जो लग्यो मोहि जिय ॥३॥ आपस में इकठौर थापिकरि जे दुख वोने । पेलि दिये पगतलें बाबिकरि प्रान हरीने ॥ श्राप जगत के जीव जिते तिन सब के नायक । अरज करू मैं सुनो दोष मेटो दुखदायक ॥४॥ --. . . .---. - १. पहले लगे हुए दोषों से निवृत्त होना-पीछे हटना। २. रागद्वेष रहित होकर समभाव रूप आत्मस्वभाव में रहना ।

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