Book Title: Tattvabhagana
Author(s): Mahavir Prasad Jain
Publisher: Bishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
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३४८ ]
आत्मध्यान का उपाय
समरंभ समारंभ प्रारंभ, मन वच तन कीने प्रारंभ । कृतकारित मोबन करिक, क्रोधादि चतुष्टय धरिकै॥४॥ शत पाठ जु इमि भेवन तें, अघ कीने परिछेदन तें। तिनको कहुं कोलों कहानी, तुम जानत केवलज्ञानी ॥५॥ विपरीत एकांत विनय के के, संशय प्रज्ञान कुनय के । वश होय घोर अघ कीने, बचतं नहि जाय कहीने ॥६॥ कुगुरुनकी सेवा कोनी, केवल अदया करि भोनी। या विधि मिश्यात भ्रमायो, चहंगति मधि दोष उपायो।७ हिसा पनि अठ जु चोरी, पर वनिता सों दग जोरी। प्रारंभ परिग्रह भीनो, पन पाप जु या विधि कीनो॥६॥ सपरस रसना प्रानन को, चखे कान विषय सेवनको। बहू करम किये मनमाने, कछु न्याय अन्याय नजाने ॥६ फल पंत्र उदबर खाये, मधु मांस मद्य चित चाये । नहिं अष्ट मूलगुण धारे, सेये कुविसन दुखकारे ॥१०॥ दुइबीस प्रभख जिन गाये, सो भी निश-दिन भुंजाये। कछु भेदाभेद न पातो, ज्यों त्यों करिउदर भरायो ।।११ अनंतानु जु बंधी जानो, प्रत्याख्यान अप्रत्याख्यानो । संग्वलन चौकड़ी गुनिये, सब मेद जु षोडश मुनिये ॥१२ परिहास प्ररति रति शोग, भय ग्लानि तिवेव संयोग । पनबीस जु भेद भये इम, इनके वश पाप किये हम ॥१३ निद्रावश शयन कराई, सुपने मधि दोष लगाई।

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