Book Title: Tattvabhagana
Author(s): Mahavir Prasad Jain
Publisher: Bishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf

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Page 373
________________ 1 २४६ ] मेरी अकेली श्रात्मा परिवर्तनों से होन है, अतिशय विनिर्मल है सदा सद्ज्ञान में ही लीन है । जो अन्य सब हैं वस्तुएं वे ऊपरी ही हैं सभी, मिज़ कर्म से उत्पन्न हैं श्रविनाशिता क्यों हो कभी ॥ २६ ॥ है एकता जब बेह के भी साथ में जिसकी नहीं, पुत्रादिकों के साथ उसका ऐक्य फिर क्यों हो कहीं । जब अंग भर से मनुन के चमड़ा अलग हो जाएगा, तो रोंगटों का छिद्रगण कैसे नहीं खो जायगा ॥ २७ ॥ संसाररूपी गहन में है जीव बहु दुख भोगता, वह बाहरी सब वस्तुनों के साथ कर संयोगता । यदि मुक्तिकी है चाह तो फिर जोवगरण ! सुन लीजिए, मनसे, वचनसे- कायसे उसको अलग कर दीजिए ॥ २८ ॥ देही ! विकल्पित जाल को तू दूर कर दे शीघ्र ही, संसार-वन में डालने का मुख्य कारसा है यही । तू सर्वदा सबसे अलग निज श्रात्मा को देखना, परमात्मा के तत्व में तू लोन निज को लेखना ||२६|| पहले समय में आत्मा ने कर्म हैं जैसे किए, वैसे शुभाशुभ फल यहाँ पर इस समय उसने लिए । यदि दूसरे के कर्मका फल जीव को हो जाय तो, हे जीवगरग ! फिर सफलता निज कर्मको खोजाय तो ।३० अपने उपार्जित कर्म-फलको जीव पाते हैं सभी, आत्मध्यान का उपाय

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