Book Title: Tattvabhagana
Author(s): Mahavir Prasad Jain
Publisher: Bishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf

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Page 371
________________ ३४४ ] आत्मध्यान का उपाय प्रशन होलोग दी दूर है कुकलंक से, देवेश वह पाकर लगे मेरे हृदय के अङ्गु से ॥१५॥ अपना लिया है निखिल तनुधारी-निबहने ही जिसे, रागादि दोष-व्यूह भी छु तक नहीं सकता जिसे । जो ज्ञानमय है, नित्य हैं, सर्वेन्द्रियों से हीन है, जिनदेव देवेश्वर वही मेरे हृदय में लीन है ॥१६॥ संसार की सब वस्तुओं में ज्ञान जिसका व्याप्त है, जो कर्म-बन्धन हीन, बुद्ध विशुद्ध सिद्धी प्राप्त है। जो ध्यान करने से मिटा देता सकल कुविकार को, देवेश वह शोभित करे मेरे हृदय-प्रागार को ॥१७॥ सम-संघ जैसे सूर्य-किरणों को न छू सकता कहीं, उस भांति कर्म-कलंक दोषाकर जिसे छूता नहीं। जो है निरंजन वस्त्वपेक्षा, नित्य भी है, एक है, उस प्राप्त प्रभु को शरणमें हं प्राप्त जोकि अनेक है ।।१६ यह विवसनायक लोक का जिसमें कभी रहता नहीं, त्रैलोक्य-भाषक-ज्ञान-रवि पर है वहाँ रहता सही। जो देव स्वात्मा में सदा स्थिर-रूपता को प्राप्त है। मैं हैं उसी की शरण में, जो देववर है, प्राप्त है ॥१९॥ अवलोकने पर ज्ञान में जिसके सकल संसार हीहै स्पष्ट दिखता, एक से है दूसरा मिलकर नहीं। जो शुद्ध शिव है, शांत भी है, नित्यता को प्राप्त है

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