Book Title: Tattvabhagana
Author(s): Mahavir Prasad Jain
Publisher: Bishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf

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Page 372
________________ आरमध्यान का उपाय [३४५ उसकी शरण को प्राप्त हूं, जो देववर है प्राप्त है ॥२०॥ वृक्षावली जैसे अनत्व की लपट से रहतो नहीं, त्यों शोक मन्मथ, मानको रहने दिया जिसने नहीं। मय, मोह, नींद, विषाद, चिन्ता भी न जिसको व्याप्तहै उसको कारण में गिरा, जो देनवर है प्राप्त है॥२१॥ विधिवत शुभासन घासका या भूमिका बनता नहीं, चौकी, शिला को ही सुभासन मानती बुधता नहीं। जिससे कषाय-इन्द्रियां खटपट मचाती हैं नहीं, प्रासन सुधी जन के लिए है प्रातमा निर्मल वही ॥२२॥ है भद्र ! प्रासन, लोक पूजा, संघको संगति तथा, ये सब समाधी के न साधन, वास्तविक में है प्रथा । सम्पूर्ण बाहर-वासना को इसलिए तू छोड़ दे, अध्यात्म में तु हर घड़ी होकर निरत रति जोड़ दे ।।२३ जो बाहरी हैं वस्तुएं, वे हैं नहीं मेरी कहीं, उस भांति हो सकता कहीं उनका कभी मैं भी नहीं। यों समझ बाह्याउम्बरों को छोड़ निश्चित रूप से, हे भद्र ! हो जा स्वस्थ तू बच जायगा भवकूप से ॥२४॥ निज को निजात्मा-मध्य में ही सम्यगवलोकन करे, तु वर्शन-प्रज्ञानमय है, शुद्ध से भी है परे । एकाग्र जिसका चित्त है, त सत्य इसको मानना, चाहे कहीं भी हों, समाधी प्राप्त उसको जानना ॥२५॥

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