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आत्मध्यान का उपाय
निजाजितं कर्म विहाय वेहिमो,
न कोपि कस्यापि ववाति किंचन । विचारयन्नेवममग्यमानसः
परो बदातोति विमध्य शेमुषीम् ॥३१॥ अपने ही बांधे कर्मोके फलको जिव पाते हैं। कोई किसीको देता नाहीं ऋषिगण इम गाते हैं । कर विचार ऐसा दढ़ मनसे जो आतम ध्याते हैं। पर देता सुख दुख यह बुद्धी नहि चित में लाते हैं ॥३१॥ यः परमात्मामितगतिवन्यः
सर्वविविक्तो भशमनवधः । शश्ववधीतो मनसि लभन्ते
मुक्तिनिकेतं विभववरं ते ॥३२॥ जो परमातम सर्व दोषसे रहित भिन्न सबसे है। अमितगती आचारज बदे मनमें ध्यान करे है । जो कोई नित ध्यावे मनमें अनुभव सार करे है। श्रेष्ठ मोक्षलक्ष्मी को पाता मानन्द झान भरे है ॥३२॥
पति द्वत्रिशतिवत्तः, परमात्मानमोक्षते।
पोऽनग्यगतचेतस्को, यात्यसौ पदमव्ययम् ॥३३॥ इन बसोस पदसे भविजन परमातम ध्याते हैं। मनको कर एकाग्र स्वात्म में अव्यय पद पाते हैं । सुखसागर बर्द्धन के कारण सत अनुभव लाते हैं। "सीतल" सामायिकको पाकर भवदधि तर जाते है ॥३३॥
(समाप्तोऽयं सामायिक पाठः)