Book Title: Tattvabhagana
Author(s): Mahavir Prasad Jain
Publisher: Bishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf

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Page 366
________________ आरमध्यान का उपाय दुवं. यतोऽश्नुते जन्मवने शरोरो । ततस्त्रिधासौ परिवर्तनीयो, यियासुना निर्वृतिमात्मनोनाम् ॥२८॥ परके संयोगों में पड़ तनधारी बहु दुख पाया । इस संसार महावन भोतर कष्ट भोग अकुलाया । मन वच काया से निश्चयकर सबसे मोह छुड़ाया। अपने आतमको मुक्तो ने मन में चाव बढ़ाया ॥२८॥ सर्व निराकृत्य विकल्पजालं संसारकान्तारनिपातहेतुम् । विविक्तमात्मानमवेक्ष्यमाणो [ ३३८ निलोयसे त्वं परमात्मतत्त्वे ॥२६॥ इस संसार महावन भीतर पटकन के जो कारण । सर्व विकल्प जाल रागादिक छोड़ो शर्म निवारण || रे मन ! मेरे देख आत्मको भिन्न परम सुखकारण । - लीन होहु परमातम माहीं जो भव ताप निवारण ॥२६॥ स्वयं कृतं कर्म यदात्मना पुरा फलं तदीयं लभते शुभाशुभम् । परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुटं स्वयं कृतं कर्म निश्यक तवा ||३०|| पूर्व कालमें कर्मबन्ध जैसा आतमने कीना । वैसा ही सुख दुख फल पावे होवे मरना जीना ॥ परका दिया अगर सुख दुख पावे यह बात सही ना । अपना किया निरर्थक होवे सो होवे कबहूँ ना ॥३०॥

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