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आत्मध्यान का उपाय
है व्यवहार विधान शिला पृथ्वी तृण का संथारा। निश्चयसे नहिं आसन हैं ये इनमें नहि कुछ सारा ॥ इन्द्रिय विषय देषसे विरहित आतम' प्यारा। शानी जीवों ने गुण लखकर आसन उसे विचारा ॥२२ न संस्तरो भनसमाधिसाधनं,
न लोकपूजा न व संघमेलनम् । यतस्तोऽध्यात्मरतो मवानिशं,
विमुख्य समिपि बाबासमाम् ॥२३॥ नहि संथारा कारण हेगा निज समाधि का भाई । नहिं लोगों से पूजा पाना संघ मेल सुखदाई ।। रात दिवस निज आतम में तू लीन रहो गुणगाई। छोड़ सफल भव रूप वासना निज में कर इकताई ॥२३॥ म सन्ति बाह्या मम केवनार्या,
भवामि तेषां न कदाचनाहम् । इत्य बिनिश्चित्य विमुच्य बाहा,
स्वस्थः सदा एवं भव भन्न मुक्त्यै ॥२४॥ मम आतम बिन सफल पदारथ नहि मेरे होते हैं। में भी उनका नहिं होता हूं नहिं वे सुम्न बोते हैं ।। ऐसा निश्चल जान छोड़ के बाहर निज टोते हैं। उन सम हम नित स्वस्थ रहें लें मुक्ति कर्म खोते हैं ॥२४॥ ____आत्मानमात्मान्यवलोक्यमान
स्त्वं दर्शनज्ञानमयो विशुद्धः।