________________
i
३३८ ]
आत्मध्यान का उपाय
एका प्रचितः खलु यत्र तत्र,
स्थितोपि साधुर्लभते समाधिम् ॥२५॥
निज आतमने आतम देखी है मम परम सुहाई । दर्शन ज्ञानमयी अविनाशी परम शुद्ध सुखदाई ॥ चाहे जिस ठिकाने पर हो हो एकाग्र सुहाई । जो साधू आपे में रहते सच समाधि उन पाई ||२५|| एक: सवा शाश्वति को ममात्मा
विनिर्मलः साधिगमस्वभावः ।
बहिर्भवाः सत्यपरे समस्ता
न शाश्वततः कर्मभवाः स्वकीयाः ||२६||
मेरा आतम एक सदा अविनाशी गुण सागर है । निर्मल केवल ज्ञानमयी सुख पूरण अमृतधर है ॥
और सकल जो मुझसे बाहर देहादिक सब पर है । नहीं नित्य निज कर्म उदयसे बना यह नाटक घर है ॥२६॥
यस्यास्ति नैक्यं वपुषापि सार्द्धं
तस्यास्ति कि पूत्रफलवमित्रः ।
प्रथक्कृते चमंणि रोमकूपाः
कुतो हि तिष्ठन्ति शरोरमध्ये ॥१२७॥
जिसका कुछ भी ऐक्य नहीं है इस शरीर से भाई । सब फिर उसके केसे होंगे नारी बेटा भाई || मित्र शत्र नहि कोई उसका नहि संग साथी दाई । तनसे चमड़ा दूर करे नहि रोम छिद्र दिखपाई ॥२७॥