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तत्त्वभावना
इसलिए उसके मन में संसार यःमा से उदासीनता हो । स्वामी नताका परम प्रेम हो। ऐसा ज्ञानी जीव निश्चिन्त होकर परमात्माका या निश्चयनयसे अपने आत्माका यथार्थ स्वरूप ध्यान में लेकर बारबार चिन्तचन करे । निश्चय से सिद्ध परमात्मा में और अपने आत्मामें कोई तरहका अन्तर नहीं है-दोनोंका स्वभाव समान है। यह आत्मा निश्चय से पूर्णज्ञान दर्शन गुण का घारी है, इसमें कर्मों के द्वारा होने वाले राग, द्वेष, मोह, क्रोध, मानादि भाव व शोक व मन्म, जरा, मरण, आदि अवस्थाएँ नहीं हैं यह तो कर्म रहित शुद्ध वीतराग है, अपने असल स्वभाव में सदा शोभायमान है। इस आत्मा का आदि अन्त नहीं है. इससे यह अविनाशी है। इस तरह ध्यान में अपने स्वरूप को जमाकर बार बार ध्यानका अभ्यास करना चाहिए । जब मनकी वृत्ति परभावोंसे हटकर अपने स्वरूपमें कुछ देरके लिए भी स्थिर होवेगी-स्वात्मानुभव जग जायगा उसी समय मात्मीक सुख का लाभ होगा। आत्मध्यान करने के लिए क्या-२ बाहरी साधनोंकी जरूरत है उसका कथन श्री ज्ञानार्णव ग्रन्थके आधार पर मागे. किया जायगा। वास्तवमें भात्मध्यानसे हो आत्माकी शुद्धि होती है, आत्मध्यानसे ही आनन्दकी प्राप्ति होती है, आत्मध्यानसे ही कर्मोको निर्जरा होती है, आत्मध्यानसे ही कर्मों का संवर होता है, आत्मध्यानसे ही मोक्ष होता है। इसलिए हितेच्युको निरंतर आत्मध्यानका अभ्यास परम निश्चिन्त होकर करना योग्य है। पद्मनंदि मुनि ने एकत्वाशीति में कहा है
मदेव चैतन्यमहं तवेष जानाति तदेव पश्यति । तवेव क परमस्ति निश्चयाद गसोस्मि भावेन तदेकतां परम् ७६ हे हि कर्मरागावि तत्कार्य च विभिमः। उपादेये .परं क्योतिपयागेकलक्षणम् ॥७॥