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तस्वभावमा
चारित्र है। निश्चयनयसे अपने ही शुद्ध स्वरूप में एकता न हो जाना सम्यग्वारित्र है। निश्चयनय से आत्मा ही सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यग्वारिश्र रूप एक मोक्ष का मार्ग है । श्री नेमिचंद्र सिद्धांतचक्रवर्ती कहते हैं
दुविहं वि मोक्खहेज झाणे पाउणदिजं सुणी णियमा । तम्हा पयसचिता जयं झाणं समग्रमसह । ( द्रव्यसंग्रह )
भावार्थ मुनि निश्चय तथा व्यवहार दोनों ही प्रकार के मोक्ष के मार्गको ध्यान में पा लेते है। इ प्रयत्नचित्त होकर ध्यान का भले प्रकार अभ्यास करो। जब आत्मध्यान में एकता होती है तब निश्चय रत्नत्रय में एकता हो ही रही है। उसी समय व्यवहार रत्न त्रय भी पल ही रहा है। क्योंकि उसके भीतर सात तत्वों का सार ज्ञान व श्रद्धान में भरा हुमा है तथा वह आत्मध्यानी हिंसादि पांचों पापों से ध्यान के समय विरक्त है । और भी—
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तवसुदवदधदा शाणरह धुरंधरो हवे अम्हा । तम्हातत्तिय णिरक्षा तल्लबीए सदा होहु ॥
भावार्थ- जो आत्मा तप का साधन करता है, शास्त्र का ज्ञाता है, वह व्रती है, वही ध्यान रूपी रथ को चला सकता है | इसलिए तप, शास्त्र, व व्रत इन तीनों में सदालीन रहना चाहिए जो आत्मध्यान करना चाहें उनको तप का प्रेमी होना चाहिए, संसार विषयों की कामनाएँ मेंटकर निज सुखके रमन का प्रेमी होना चाहिए। जो इंद्रियों के विषयों के लोलुपी हैं उनका ध्यान बड़ी कठिनता से जमता है। जैसा जैसा चित्त बाही भोग उप भोगों की तरफ से हटेगा वैसा वैसा आत्मध्यान कर सकेगा