Book Title: Tattvabhagana
Author(s): Mahavir Prasad Jain
Publisher: Bishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf

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Page 350
________________ आत्मध्यान का उपाय [ ३२३ सोरठा-सर्व विपक्ष नार, योगा। मन परा करि सत मान, ते पाय तिस मावकं ॥ (४) रूपातीत ध्यान इस ध्यान में सिद्धोंके गुणों को विचारता हुआ अपने आपको ही सिद्ध माने, पहले सिद्ध के स्वरूपको विचारे कि वह अमूर्तीक चैतन्य, पुरुषाकार, परम कृतकृत्य परमशांत, निष्कल, परम शुद्ध, आठ कर्म रहित, परम वीतराग, चिदानन्दरूप सम्यक्तादि आठ गुण सहित, परम निर्लेप, परम संतोषी, स्वरूपमग्न, स्फटिकमणिमयी निर्मल निरंजन, निर्विकार व लोकाग्र विराजमान हैं । फिर विचारते-२ अपने आत्माको ही सिद्धरूप मानकर ध्यावे कि मैं ही परमात्मा हूँ, सर्वश हूं, सिद्ध हूँ,कृतकृत्य हूँ, विश्वलोको हूँ, निरंजन हूँ, स्वभावस्थिर हूँ, परमानन्दभोगी हूँ, कमरहित हूँ, परमवीतरागी हूँ, परम शिव हूँ तथा परमब्रह्म हूं। इस तरह अपने स्वरूप में गुप्त हो जावें। जहां एकदम सिद्ध परमात्माका ध्यान करते-२ व्रत से अद्वैत में रम जावे, मापको ही सिद्ध सम शुद्ध भावे व उसो में सन्मय हो जाये सो रूमातीत ध्यान है। जैसा पंडित जयचंदजी ने कहा हैदोहा-सिह निरंजन फर्म विन, मूरति रहित अनन्त । जो ध्याये परमात्मा, सो पावै शिव सन्त । इस तरह जो ध्यानका अभ्यास करना चाहे उसको निश्चल आसनसे होकरके पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ या रूपातीत इनमें से चाहे जिस ध्यानको व्याने का अभ्यास करे। परन्तु एक ध्यान

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