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आरमध्यान का उपश्य
विमुक्तिमार्गप्रतिकूलयतिमा
मया कषायाक्षवशेन बुधिया ।
चारित्रशुद्ध वकारि लोचनं
तवस्तु मिथ्या मम वुष्कृतं प्रभो ॥६॥
पत्नत्रय मय मोक्षमार्ग से उलटा चलकर मैंने I
तज विवेक इन्द्रियवश होके अर कषाय आधीने ॥
सम्यक् व्रत चारित्र शुद्धि का किया लोप हो मैं । यो सब दुष्कृत पाप दूर हों शुद्ध किया मन मैंने ॥ ६ ॥
बिनिम्बनालोचमाण रहे,
मनोदचः कायकषायनिर्मितम् ।
निहन्मि पापं भवदुःखकारण
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भिषग्विषं मम्यगुणैरिवाखिलम् ॥७॥
मन वच काय कषायनके वश जो कुछ पाप किया है । है संसार दुःख का कारण ऐसा जान लिया है ॥ निन्दा गर्दा आलोचन से ताको दूर किया है । चतुर वंद्य जिम मंत्र गुणों से विष संहार किया है ॥७॥
अतिक्रमं यद्विमतेयंतिक्रमं
जिनातिचारं सुचरित्रकम्मंणः ।
bearerrarरमपि प्रमादतः
प्रतिक्रमं तस्य करोमि शुद्धये ॥ ८३॥
मतिभृष्ट हो हे जिन ! मैंने जो अतिक्रम करडाला । 'सुलाचार कर्मों में व्यतिक्रम अतीचार भी डाला ॥