________________
आत्मध्यान का उपाय
निराकृताशेषममत्वमुझे
समं मनो मेस्तु सवापि माप ॥३॥ दुःख सुखोंमें, शत्रु मित्रमें, हो समान मन मेरा। चन मंदिर में लाभ हानिमें हो समता का रा॥ सर्व जगतके थावर जंगम चेतन जड़ उलझेरा। तिनमें ममत करूँ नहिं कबहूँ छोड़, मेरा तेरा ॥३॥ मुनीश ! लोनाविव कोलिताविव
स्पिरी निषासाविव विम्बितादिव। पायो स्ववीयो मम सिष्ठता सवा
तमोघुनानी हदि दोपकाविव ॥४॥ हे मुनीश ! तब ज्ञानमयी चरणोंको हिय में ध्याऊँ। लीन रहें वे कोलित होयें, थिर उनको बिठलाऊँ। छाया उनकी रहे सदा सब औगुण नष्ट कराऊँ। मोह अंधेरा दूर करनको रत्नदीप सम भाऊ ॥४॥ एकेन्द्रिमाया यदि देव देहिनः,
प्रमावतः संचरता इतस्ततः । मता विमिन्ना मिलिसा निपीडिता,
तवस्तु मिथ्या दुरनुष्ठितं तदा ॥५॥ एकेन्द्रो दोइन्द्री आदिक, पंचेन्द्रो पर्यंता । प्राणिनको प्रमादवश होके इत उत में विचरंता ।। नाश छिन्न दुःखित कोने हो भेले कर कर अन्ता। सो सब दुराचार कृत कल्मष दूर होहु भगवन्तः ॥५॥